
महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये और महात्मा श्री महात्मा श्यामनन्द के साधक शिष्य हो गए। महात्मा जी के सानिध्य में ख्वाजा कजल अब्बास मूसा को रामजन्मभूमि का इतिहास एवं प्रभाव विदित हुआ और उनकी श्रद्धा जन्मभूमि में हो गयी। ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने महात्मा श्यामनन्द से आग्रह किया की उन्हें वो अपने जैसी दिव्य सिद्धियों को प्राप्त करने का मार्ग बताएं। महात्मा श्यामनन्द ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा से कहा की हिन्दू धर्म के अनुसार सिद्धि प्राप्ति करने के लिए तुम्हे योग की शिक्षा दी जाएगी, मगर वो तुम सिद्धि के स्तर तक नहीं कर पाओगे क्यूकी हिन्दुओं जैसी पवित्रता तुम नहीं रख पाओगे। अतः महात्मा श्यामनन्द ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा को रास्ता सुझाते हुए कहा की “तुम इस्लाम धर्म की शरियत के अनुसार ही अपने ही मन्त्र "लाइलाह इल्लिलाह" का नियमपूर्वक अनुष्ठान करो”। इस प्रकार मैं उन महान सिद्धियों को प्राप्त करने में तुम्हारी सहायता करूँगा। महात्मा श्यामनन्द के सानिध्य में बताये गए मार्ग से ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के सानिध्य में आया और सिद्धि प्राप्त करने के लिए ख्वाजा की तरह अनुष्ठान करने लगा।
जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना। जब जन्मभूमि की महिमा और प्रभाव को उसने देखा तो उसने अपनी लुटेरी मानसिकता दिखाते हुए उसने उस स्थान को खुर्द मक्का या छोटा मक्का साबित करने या यूँ कह लें उस रूप में स्थापित करने की कुत्सित आकांक्षा जाग उठी। जलालशाह ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो महात्मा श्यामनन्द की जगह हमे मिल जाएगी और चूकी अयोध्या की जन्मभूमि हिन्दुस्थान में हिन्दू आस्था का प्रतीक है तो यदि यहाँ जन्मभूमि पर मस्जिद बन गया तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
अब विवेचना के इस बिंदु पर उस समय के राजनैतिक परिदृश्य पर नजर डालना जरुरी हो जाता है। हमारे इतिहास में एक गलत बात बताई जाती है की मुगलों ने पुरे भारत पर राज्य किया, हाँ उन्होंने एक बड़े हिस्से को जीता था मगर सर्वदा उन्हें हिन्दू वीरो से प्रतिरोध करना पड़ा और कुछ जयचंदों के कारण उनकी जड़े गहरी हुई। उस समय उदयपुर के सिंहासन पर महाराणा संग्रामसिंह राज्य कर रहे थे जिनकी राजधानी चित्तौड़गढ़ थी। संग्रामसिंह को राणासाँगा के नाम से भी जाना जाता है । आगरे के पास फतेहपुर सीकरी में बाबर और राणासाँगा का भीषण युद्ध हुआ जिसमे बाबर घायल हो कर भाग निकला और अयोध्या आ के जलालशाह की शरण ली(ज्ञात रहे तब तक जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के सिद्धि की धाक आस पर के क्षेत्रों में महात्मा श्यामनन्द के सिद्धि प्राप्त साधकों के रूप में जम चूकी थी)। इसी समय जलालशाह ने बाबर पर अपना प्रभाव किया और बड़ी सेना ले कर युद्ध करने का आशीर्वाद दिया।बाबर ने राणासाँगा की ३० हजार सैनिको की सेना के सामने अपने ६ लाख सैनिको की सेना के साथ धावा बोल दिया और इस युद्ध में राणासाँगा की हार हुई । युद्ध के बाद राणासाँगा के ६०० और बाबर की सेना के ९०,००० सैनिक जीवित बचे ।
इस युद्ध में विजय पा के बाबर फिर अयोध्या आया और जलालशाह से मिला,जलालशाह ने बाबर को अपनीं सिद्धी का भय और इस्लाम के आधिपत्य की बात बताकर अपनी योजना बताई और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के समर्थन की बात कही । बाबर ने अपने वजीर मीरबाँकी खा को ये काम पूरा करने का आदेश दिया और खुद दिल्ली चला गया। अब जलालशाह ने अयोध्या को खुर्द मक्का के रूप में स्थापित करने के अपने कुत्सित प्रयासों को आगे बढ़ाना शुरू किया। सर्वप्रथम प्राचीन इस्लामिक ढर्रे की लम्बी लम्बी कब्रों को बनवाया गया,दूर दूर से मुसलमानों के शव अयोध्या लाये जाने लगे। पुरे भारतवर्ष में ये बात फ़ैल गयी और भगवान राम की अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए कब्रों से पाट दिया गया॥ अब भी उनमे से कुछ अयोध्या में अयोध्या नरेश के महल के निकट कब्रों या मजारो के रूप में मिल जाएँगी।
अब जलालशाह ने मीरबाँकी खां के माध्यम से मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया जिसमे ख्वाजा कजल अब्बास मूसा भी शामिल हो गए । बाबा श्यामनन्द जी अपने सड़क मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। भगवान का मंदिर तोड़ने की योजना के एक दिन पूर्व दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर खड़े हो गए उन्होंने कहा की रामलला के मंदिर में किसी का भी प्रवेश हमारी मृत्यु के बाद ही होगा। जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए. उसके बाद तो देशभर के हिन्दू राम जन्मभूमि के कवच बन कर खड़े हो गए ॥इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार हिंदुओं की लाशे गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया.. ज्ञातव्य रहे की मंदिर को बचने के लिए ये युद्ध भीटी के राजा, राजा महताब सिंह ने लड़ा था और वीर गति को प्राप्त हुए एवं विवादित ढांचे का निर्माण किस प्रकार हुआ (जिसे कुछ भाई बाबरी मस्जिद का नाम भी देते हैं) इसका विस्तृत विवरण मैं अगली पोस्टों में दूंगा..
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