Friday, August 30, 2013

प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र : सनातन वैदिक विज्ञान का अप्रतिम स्वरूप



हिंदू वैदिक ग्रंथोँ एवं प्राचीन मनीषी साहित्योँ मेँ वायुवेग से उड़ने वाले विमानोँ (हवाई जहाज़ोँ) का वर्णन है, सेकुलरोँ के लिए ये कपोल कल्पित कथाएं हो सकती हैँ, परन्तु धर्मभ्रष्ट लोगोँ की बातोँ पर ध्यान ना देते हुए हम तथ्योँ को विस्तार देते हैँ।ब्रह्मा का १ दिन, पृथ्वी पर हमारे वर्षोँ के ४,३२,००००००० दिनोँ के बराबर है। और यही १ ब्रह्म दिन चारोँ युगोँ मेँ विभाजित है यानि, सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं वर्तमान मेँ कलियुग।

सतयुग की आयु १,७२,८००० वर्ष निर्धारित है, इसी प्रकार १,००० चक्रोँ के सापेक्ष त्रेता और कलियुग की आयु भी निर्धारित की गई है।
सतयुग मेँ प्राणी एवं जीवधारी वर्तमान से बेहद लंबा एवं जटिल जीवन जीते थे, क्रमशः त्रेता एवं द्वापर से कलियुग आयु कम होती गई और सत्य का प्रसार घटने लगा,

उस समय के व्यक्तियोँ की आयु लम्बी एवं सत्य का अधिक प्रभाव होने के कारण उनमेँ आध्यात्मिक समझ एवं रहस्यमयी शक्तियां विकसित हुई, और उस समय के व्यक्तियोँ ने जिन वैज्ञानिक रचनाओँ को बनाया उनमेँ से एक थी "वैमानिकी"।
उस समय की मांग के अनुसार विभिन्न विमान विकसित किए गए, जिन्हेँ भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओँ के आदेश पर यक्षोँ (जिन्हेँ इंजीनियर कह सकते हैँ) ने बनाया था,

ये विमान प्राकृतिक डिज़ाइन से बनाए जाते थे, इनमेँ पक्षियोँ के परोँ जैसी संरचनाओँ का प्रयोग जाता था, इसके पश्चात् के विमान, वैदिक ज्ञान के प्रकांड संतएवं मनीषियोँ द्वारा निर्मित किए गए, तीनोँ युगोँ के अनुरूप विमानोँ केभी अलग अलग प्रकार होते थे,

प्रथम युग सतयुग मेँ विमान मंत्र शक्ति से उड़ा करते थे, द्वितीय युग त्रेता मेँ मंत्र एवं तंत्र की सम्मिलित शक्ति का प्रयोग होता था, तृतीय युग द्वापर मेँ मंत्र-तंत्र-यंत्र तीनोँ की सामूहिक ऊर्जा से विमान उड़ा करते थे, वर्तमान मेँ अर्थात् कलियुग मेँ मंत्र एवं तंत्र के ज्ञान की अथाह कमी है, अतः आज के विमान सिर्फ यंत्र (मैकेनिकल) शक्ति से उड़ा करते हैँ,

युगोँ के अनुरूप हमेँ विमानोँ के प्रकारोँ की संख्या ज्ञात है, सतयुग मेँ मंत्रिका विमानोँ के २६ प्रकार (मॉडल) थे, त्रेता मेँ तंत्रिका विमानोँ के ५६ प्रकार थे, तथा द्वापर मेँ कृतिका (सम्मिलित) विमानोँ के भी २६ प्रकार थे,
हालांकि आकार और निर्माण के संबंध मेँ इनमेँ आपस मेँ कोई अंतर नहीँ हैँ।

महान भारतीय आचार्य महर्षि भारद्वाज ने एक ग्रंथ रचा, जिसका नाम है, "विमानिका" या "विमानिका शास्त्र"

१८७५ ईसवीँ में दक्षिण भारत के एक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का बताया जाता है, इस ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के ९७ अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा २० ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियां अब लुप्त हो चुकी हैं। कई कृतियोँ को तो विधर्मियोँ ने नालंदा विश्वविद्यालय मेँ जला दिया,

इस महान ग्रंथ मेँ विभिन्न प्रकार के विमान, हवाई जहाज एवं उड़न-खटोले बनाने की विधियाँ दी गई हैँ, तथा विमान और उसके कलपुर्जे तथा ईंधन के प्रयोग तथा निर्माण की विधियोँ का भी सचित्र वर्णन किया गया है, उन्होँने अपने विमानोँ मेँ ईंधन या नोदक अथवा प्रणोदन (प्रोपेलेँट) के रूप मेँ पारे (मर्करी Hg) का प्रयोग किया।

बहुत कम लोग जानते हैँ कि कलियुग का पहला विमान राइट ब्रदर्स ने नहीँ बनाया था, पहला विमान १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे, ने अपनी पत्नी (जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषा थीं) की सहायता से बनाया एवं उड़ाया था। उन्होँने एक मरुत्सखा प्रकार के विमान का निर्माण किया। इसकी उड़ान का प्रदर्शन तलपड़े ने मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर शिवाजी राव गायकवाड़ और बम्बई के प्रमुख नागरिक लालजी नारायण के सामने किया था। विमान १५०० फुट की ऊंचाई तक उड़ा और फिर अपने आप नीचे उतर आया। बताया जाता है कि इस विमान में एक ऐसा यंत्र लगा था, जिससे एक निश्चित ऊंचाई के बाद उसका ऊपर उठना बन्द हो जाता था। इस विमान को उन्होंने महादेव गोविन्द रानडे को भी दिखाया था।

दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर, १९१८ ईँसवी को उनका देहावसान हो गया।

राइट ब्रदर्स के काफी पहले वायुयान निर्माण कर उसे उड़ाकर दिखा देने वाले तलपड़े महोदय को आधुनिक विश्व का प्रथम विमान निर्माता होने की मान्यता देश के स्वाधीन (?) हो जाने के इतने वर्षों बाद भी नहीं दिलाई जा सकी, यह निश्चय ही अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। और इससे भी कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पाठ्य-पुस्तकों में शिवकर बापूजी तलपड़े के बजाय राइटब्रदर्स (राइट बन्धुओं) को ही अब भी प्रथम विमान निर्माता होने का श्रेय दिया जा रहा है, जो नितान्त असत्य है।

"समरांगन:-सूत्र धारा" नामक भारतीय ग्रंथ मेँ भी विमान निर्माण संबंधी जानकारी है। इस ग्रंथ मेँ युद्ध के समय वैमानिक मशीनोँ के प्रयोग का वर्णन है, इस ग्रंथ मेँ संस्कृत के २३० श्लोक हैँ, स्थान की कमी के कारण हम यहाँ इस ग्रंथ के पूरे श्लोक नहीँ लिख रहे हैँ, अन्यथा लेख लंबा हो जाएगा।

परन्तु हम इस ग्रंथ के १९० वेँ श्लोक का अनुवाद अवश्य कर रहे हैँ :-

"[२:२० . १९०] परिपत्रोँ से पूर्ण विमान के दाहिने पंख से अंदर जाते हुए केंद्र पर ध्वनि की गति से पारे को ईँधन के सापेक्ष पहुँचाने पर एक छोटी पर अधिक दबाव वाली आंतरिक ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो आपके यंत्र को आकाश मेँ शनैः शनैः ले जाएगी, जिससे यंत्र के अंदर बैठा व्यक्ति अविस्मरणीय तरीके से नभ की यात्रा करेगा, चार कठोर धातु से बने पारे के पात्रोँ का संयोजन उचित स्थिति मेँ किया जाना चाहिए, एवं उन्हेँ नियंत्रित तरीके से ऊष्मा देनी चाहिए, ऐसा करने से आपका विमान आकाश मेँ चमकीले मोती के समान उड़ता नज़र आएगा।।"

इस ग्रंथ के एक गद्य का अनुवाद इस प्रकार है -

"सर्वप्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। तत्पश्चात अन्य विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-


(१) रुकमा – रुकमा नुकीले आकार के और स्वर्ण रंग के विमान थे।


(२) सुन्दरः –सुन्दर: त्रिकोण के आकार के तथा रजत (चाँदी) युक्त विमान थे।


(३) त्रिपुरः – त्रिपुरः तीन तल वाले शंक्वाकार विमान थे।


(४) शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था। तथा ये अंतर्राक्षीय विमान थे।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का प्रशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुर्ज़े, उपकरण, चालकों एवं यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये। ग्रंथ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबू अथवा सेब या अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

साथ ही, ७ प्रकार के इंजनों का वर्णन किया गया है, तथा उनका किस विशिष्ट उद्देश्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊंचाई पर उसका प्रयोग सफल और उत्तम होगा ये भी वर्णित है।

ग्रंथ का सारांश यह है कि इसमेँ प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्ध है। विमान आधुनिक हेलीकॉप्टरों की तरह सीधे ऊंची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे-पीछे तथा तिरछा चलने में भी सक्षम बताये गये हैं

इसके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रंथोँ - रामायण, महाभारत, चारोँ वेद, युक्तिकरालपातु (१२ वीं सदी ईस्वी) मायाम्तम्, शतपत् ब्राह्मण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, भागवतपुराण, हरिवाम्सा, उत्तमचरित्र ,हर्षचरित्र, तमिल पाठ जीविकाचिँतामणि, मेँ तथा और भी कई वैदिक ग्रंथोँ मेँ भी विमानोँ के बारे मेँ विस्तार से बताया गया है,

महर्षि भारद्वाज के शब्दों में - "पक्षियों की भान्ति उडने के कारण वायुयान को विमान कहते हैं, (वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।)


विमानों के प्रकार:-


(१) शकत्युदगम विमान -"विद्युत से चलने वाला विमान"


(२) धूम्र विमान - "धुँआ, वाष्प आदि से चलने वाला विमान"


(३) अशुवाह विमान - "सूर्य किरणों से चलने वाला विमान",


(४) शिखोदभग विमान - "पारे से चलने वाला विमान",


(५) तारामुख विमान -"चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला विमान",


(६) मरूत्सख विमान - "गैस इत्यादि से चलने वाला विमान"


(७) भूतवाहक विमान - "जल,अग्नि तथा वायु से चलने वाला विमान"


वो विमान जो मानवनिर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडनतशतरियों’ के अनुरूप है। विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया।


प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्होंने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान-विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

प्रथम ग्रंथ :

(१) ऋगवेद- इस आदिग्रन्थ में कम से कम २०० बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हेँ अश्विनों (वैज्ञानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणतया तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण,रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई संदेह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी।


यातायात के लिये ऋग्वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-


(१) जलयान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ६.५८.३)

(२) कारायान – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ९.१४.१)

(३) त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋगवेद ३.१४.१)

(४) त्रिचक्र रथ – यह रथ के समान तिपहिया विमान आकाश में उड़ सकता था। (ऋगवेद ४.३६.१)

(५) वायुरथ – रथ के जैसा ये यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ५.४१.६)

(६) विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ३.१४.१).

द्वितीय ग्रंथ :

(२) यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी एक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिसका निर्माण जुड़वा अश्विन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्होँने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।
तृतीय ग्रंथ :

(३) यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रंथ भी महर्षि भारद्वाज रचित है। इसके ४० भाग हैं जिनमें से एक भाग मेँ ‘विमानिका प्रकरण’ के आठ अध्याय, लगभग १०० विषय और ५०० सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारद्वाज ने विमानों को तीन श्रैँणियों में विभाजित किया हैः-

(१) अन्तर्देशीय – जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।

(२) अन्तर्राष्ट्रीय – जो एक देश से दूसरे देश को जाते हैँ।

(३) अन्तर्राक्षीय – जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते हैँ।

इनमें सें अति-उल्लेखनीय सैनिक विमान थे जिनकी विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं।

उदाहरणार्थ - सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

पूर्णत्या अटूट,☀
अग्नि से पूर्णतयाः सुरक्षित☀ आवश्यक्तता पड़ने पर पलक झपकने मात्र के समय मेँ ही एक दम से स्थिर हो जाने में सक्षम,☀ शत्रु से अदृश्य हो जाने की क्षमता (स्टील्थ क्षमता), ☀ शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्षम। ☀ शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृश्योँ को विमान मेँ ही रिकार्ड कर लेने की क्षमता, ☀ शत्रु के विमानोँ की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना, ☀ शत्रु के विमान चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता, ☀ निजी रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता, ☀ आवश्यकता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता, ☀ चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता, ☀ स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता, ☀ हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बड़ा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णतयाः नियन्त्रित कर सकने की सक्षमता,

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ विमानोँ और अन्य हवाई जहाज़ोँ का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारद्वाज कोई आधुनिक ‘फिक्शन राइटर’ तो थे नहीं। परन्तु ऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित करता है, कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञानिक माडल का विचार कैसे किया।

उन्होंने अंतरिक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती-बाड़ी का ज्ञान भी हासिल नहीं कर पाये थे।

चतुर्थ ग्रंथ :

(४) कथा सरित सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों (इंजीनियरोँ) का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वाले विमानों को बना सकते थे। यह रथ विमान मन की गति से चलते थे।

पंचम ग्रंथ :

(५) अर्थशास्त्र - चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सेविकाओं (पायलट) का भी उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उड़ाती थी। चाणक्य ने उनके लिये विशिष्ट शब्द "आकाश युद्धिनाः" का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलट)

आकाश-रथ, का उल्लेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी किया गया है जो उसके काल (२३७-२५६ ईसा पूर्व) में लगाये गये थे। ☀

भारद्वाज मुनि ने विमानिका शास्त्र मेँ लिखा हैं, -"विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है।"


शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। क्योँकि वहीँ सफल पायलट हो सकता है।


विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है।


अब हम कुछ विमान रहस्योँ की चर्चा करेँगे।


(१) कृतक रहस्य - बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार हम विश्वकर्मा , छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्रोँ के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बना सकते , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर यानी कल-पुर्जोँ का वर्णन है।


(२) गूढ़ रहस्य - यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने (स्टील्थ मोड) की विधि दी गयी है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण हरने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।


(३) अपरोक्ष रहस्य - यह नौँवा रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।


(४) संकोचा - यह दसवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।


(५) विस्तृता - यह ग्यारहवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा या छोटा करना होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।

(६) सर्पागमन रहस्य - यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी - मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है, उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी - मेढ़ी हो जाती है।

(७) परशब्द ग्राहक रहस्य - यह पच्चीसवाँ रहस्य है। इसमें कहा गया है कि शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।


(८) रूपाकर्षण रहस्य - इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का दृश्य देखा जा सकता है।


(९) दिक्प्रदर्शन रहस्य - दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा का पता चलता है।

(९) स्तब्धक रहस्य - एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग मूर्छित हो जाते हैं।


(१०) कर्षण रहस्य - यह बत्तीसवाँ रहस्य है, इसके अनुसार आपके विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार दिशा से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।


"विमान-शास्त्री महर्षि शौनक" आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा "महर्षि धुण्डीनाथ" विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या तूफानोँ का उल्लेख करते हैं और उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।


आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -


(१) १० किलोमीटर - रेखा पथ - शक्त्यावृत्त तूफान या चक्रवात आने पर


(२) ५० किलोमीटर - वातावृत्त - तेज हवा चलने पर


(३) ६० किलोमीटर - कक्ष पथ - किरणावृत्त सौर तूफान आने पर


(४) ८० किलोमीटर - शक्तिपथ - सत्यावृत्त बर्फ गिरने पर


एक महत्वपूर्ण बात विमान के पायलटोँ को विमान मेँ तथा पृथ्वी पर किस तरह भोजन करना चाहिए इसका भी वर्णन है
उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज के विमान की उतरने की जगह (लैँडिग) निश्चित है, पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे।


अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना चाहिए, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया गया है, जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। जब तक दूसरे विमान आपको खोज नहीँ लेते।


विमानिका शास्त्र में कहा गया है कि पायलट को विमान कभी खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए। १९९० में अमेरिकी वायुसेना ने १० वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है। ☀

अब जरा विमानोँ मेँ लगे यंत्रोँ और उपकरणोँ के बारे मेँ तथ्य प्रस्तुत कियेँ जाएं -


"विमानिका-शास्त्र" में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनके विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है -


(१) विश्व क्रिया दर्पण - इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गतिविधियों का दर्शन पायलट को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।


(२) परिवेष क्रिया यंत्र - ये यंत्र विमान की गति को नियंत्रित करता था।


(३) शब्दाकर्षण मंत्र - इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को "पक्षी-टकराने" जैसी दुर्घटना से बचाया जा सकता था।


(४) गर्भ-गृह यंत्र - इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजा जाता था।


(५) शक्त्याकर्षण यंत्र - इस यंत्र का कार्य था, विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें ऊष्णता में परिवर्तित करना और ऊष्णता के वातावरण में छोड़ना।


(६) दिशा-दर्शी यंत्र - ये दिशा दिखाने वाला यंत्र था (कम्पास)।


(७) वक्र प्रसारण यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।


(८) अपस्मार यंत्र - युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।


(९) तमोगर्भ यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।


"विमानिका-शास्त्र" मेँ विमान को संचालित करने हेतु विभिन्न ऊर्जा स्रोतोँ का वर्णन किया गया है, महर्षि भारद्वाज इसके लिए तीन प्रकार के ऊर्जा स्रोतों उल्लेख करते हैं।


(१) विभिन्न दुर्लभ वनस्पतियोँ का तेल - ये ईँधन की भाँति काम करता था।


(२) पारे की भाप - प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह जब ऊपर गया, तब उसमेँ विस्फोट हो गया। पर यह सिद्ध हो गया कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है, इस दिशा मेँ अभी और कार्य करने बाकी हैँ।


(३) सौर ऊर्जा - सूर्य की ऊर्जा द्वारा भी विमान संचालित होता था। सौर ऊर्जा ग्रहण कर विमान उड़ाना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से सूर्य शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। सेटेलाइट इसी प्रक्रिया द्वारा चलते हैँ।


"विमानिका-शास्त्र" मेँ महर्षि भारद्वाज विमान बनाने के लिए आवश्यक धातुओँ का वर्णन किया है, पर प्रश्न उठता है कि क्या "विमानिका-शास्त्र" ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके?
यदि कोई ऐसा भाग है, तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं?
क्या उनमें कुछ सफलता मिली है
सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं।


हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने "विमानिक-शास्त्र" ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशाष्पद हैं।


अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में उन्हेँ सफलता मिली है।


(१) प्रथम धातु है "तमोगर्भ-लौह" इसके बारे मेँ हमने अभी ऊपर बताया है, विमानिका-शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य (स्टील्थ मोड मेँ डालने) करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ये ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा लेड से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्‌यूरिक एसिड में भी नहीं गलती।


(२) दूसरी धातु जो उन्होँने बनाई है, उसका नाम है पंच लौह, यह रंग में स्वर्ण जैसी है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है, कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है, जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु विचित्र गुणोँ से परिपूर्ण है।


(३) तीसरी धातु का नाम है"ऑरर" यह ताँबा आधारित मिश्र धा ☀

इन अध्ययनोँ पर बनारस विश्वविद्यालय के एक रीडर ने कहा था

"This is the Study of Various Materials Described in Vimanika Shastra of Great Maharshi Bharadwaja"

इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भारद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जिकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी.रामचन्द्र राव के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम "प्रकाश स्तंभनभिद् लौह" है। इसकी विशेंषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण कचर लौह – सिलिका, भूचक्र सुरमित्रादिक्षर - चूना
अयस्कान्त - इन खनिजोँ के द्वारा, अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया है।


प्रकाश स्तंभनभिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन-हाईग्रोस्कोपिक है, नॉन-हाईग्रोस्कोपिक काँचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश नहीँ हटता है, और वे सुरक्षित रहते हैं।


प्रकाश स्तंभनभिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारेड सिग्नल्स में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।


तो देखा आपने भारतीय हिँदू सभ्यता और सनातन संस्कृति का अनुपम वैज्ञानिक उदाहरण,


अगर आपने पूरा लेख ध्यान से पढ़ा होगा तो आपको पता चल गया होगा कि सनातन संस्कृति क्या है,


पूर्णतः वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण इसकी श्रेष्ठता को विस्तार देते हैँ,


अब रही बात उपरोक्त लेख को नकाराने वाले सेकुलरोँ की, तो इसमेँ उनकी कोई गलती नहीँ है, "क्योँकि विधर्मियोँ के शुक्राणुओँ वाली "हाइब्रिड-नस्ल" की संतानोँ की मानसिकता ऐसी ही होती है,


क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इन विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं?


अब जरा अन्य देशोँ पर नज़र डाले तो कुछ इस तरह की कहानियाँ निकल के आऐँगी -


"पीटर नामक फरिश्ता अपने हंस जैसे चार पंख फैलाता है और आग की बारिश करते हुए उड़ जाता है","फिर माइकल नाम का फरिश्ता बत्तख के पंख काटकर अपने पीछे लगाता है और उड़कर स्वर्ग मेँ पहुँच जाता है","या फिर सलमा परी जख्मी अबू को उठाती है और उड़न-कालीन मेँ बिठाकर घर भेज देती है","फिर किसी हातिमताई को कोई व्हेल मछली के आकार का बाज उठाकर ले जाता है", "अब सिँदबाद आता है और काले बादलोँ के ऊपर बैठ कर दुनिया का चक्कर लगाने निकल पड़ता है", "फिर कोई 'गुलफाम’ पंख लगे उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर किसी ‘हसीन परी’ से शादी करने आ धमकता है","आखिर मेँ अलादीन एक चिराग रगड़ता है, और जिन्न महाशय एक जादुई कालीन हाथ मेँ लेकर प्रकट हो जाते हैँ, और फिर दोनोँ अपने बंदर के साथ कालीन मेँ बैठकर रेगिस्तान के बीच मेँ बने सुल्तान के महल मेँ "शैताने-वाहियात " को मारने निकल पड़ते हैँ।"

कहने का तात्पर्य ये है कि भारतीय सनातन संस्कृति के आगे किसी भी तरह की ''मिथ'' कहीँ नहीँ ठहर सकती

इतने वैज्ञानिकता से परिपूर्ण तथ्य सिर्फ सनातनी ही दे सकते हैँ

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता पर गर्व कीजिए

कैसा सहयोग चाहते हैं

मनमोहन सिंह या तो बोलते नहीं और..........
बोलते हैं तो..........क्या बताऊँ.......बेडा गर्क करते हैं...

मनमोहन सिंह या तो बोलते नहीं और बोलते हैं तो अब लगता है ये दिग्विजय सिंह से ट्रेनिंग ले कर बोलते हैं। क्या कहा इन्होने आज जरा गौर करें:

- विपक्ष सहयोग नहीं करता.......
- 9 साल से विपक्ष अड़ंगे लगा रहा है.........
- विपक्ष ने कभी सहयोग नहीं किया.........
-आर्थिक स्तिथि को सम्हालना सामूहिक जिम्मेदारी है......
- रुपये का गिरना चिंता का विषय है............
- अन्य देशों की भी करेंसी गिरी हैं...............

ये मनमोहन सिंह की बे-सर पैर की बातें हैं। जब संसद का सत्र ख़त्म होने को होता है विपक्ष पर हमला शुरू कर देते हैं।
क्या सहयोग चाहते हो मनमोहन जी विपक्ष से जरा ये भी तो खुलासा कर दो ना.....
-क्या विपक्ष आपके साथ खड़ा हो कर सोनिया गाँधी और पप्पू की आरती उतारे जो आप करते हो.....
-क्या विपक्ष सरकार की मदद करे घोटाले करने में या घोटालो पर चुप रहे, तो सहयोग कहलायेगा......
-क्या विपक्ष का सहयोग तब कहलायेगा जब आपकी सरकार में कोयला घोटाले की फाइल्स चोरी हो जाएँ और विपक्ष चुप रहे..........
-पाकिस्तान हमारे सैनिको के सर काट के ले जाये और उनकी हत्या कर जाये और आपकी सरकार उसके पी एम् यो बिरयानी खिलाये तो विपक्ष उसमे सहमति जताए, क्या आपको ऐसा सहयोग चाहिए.........
-आप कहते हो 9 साल से विपक्ष अड़ंगे लगा रहा है मगर सच तो ये है कि आप 9 साल से मनमानी कर रहे हो जिसकी वजह से देश आर्थिक इमरजेंसी की कगार पे पहुँच गया पर आप अपनी सरकार को दोषी और जिम्मेदार मानने के लिए तैयार नहीं हो, क्या विपक्ष का ये सहयोग चाहते हो कि वो आपको जिम्मेदार ना कहे...........
-आज आप आर्थिक स्तिथि को सम्हालने के लिए सामूहिक जिम्मेदारी की बात करते हो, क्यूँ, फैसले तो आपने अपने खुद के मन के माफिक किये हैं, तो फिर जब आपकी नीतियाँ
फ़ैल हो गयी तो सामूहिक जिम्मेदारी का क्या औचित्य रह जाता है.........
-आप सारी नीतियाँ कांग्रेस के लिए वोट बटोरने के लिए बनायें और सहयोग मांगते हो विपक्ष का, तो विपक्ष क्या
पागल है जो आपके फिर से सत्ता में आने का सामान जुटाए और तब आप विपक्ष का सहयोग मानोगे..........
-विपक्ष कैसे सहयोग कर सकता आपकी नीतियों पर जब आप सांप्रदायिक तौर पर देश को बांटने का काम कर रहे हो और मुस्लिम वोट बैंक के लिए हिन्दुओं का दमन कर रहे
हो................
-अधिकारिक विपक्ष भाजपा है और सहयोग के नाम पे क्या आप चाहते कि आपका गृहमंत्री शिंदे समस्त हिन्दुओं को आतकवादी कह दे और भाजपा चुप रहे..............
-क्या वो सहयोग चाहते हो कि आपका दिग्विजय सिंह बटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी कहता रहे और भाजपा/विपक्ष उसके सुर में सुर मिलाये..........
-विपक्ष आपकी चुप्पी पर कैसे सहयोग कर सकता है, जब चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और मयन्मार हमारी सीमाओं में घुसपैठ करें.................
-आप रुपये की कीमत घटने पर ये कह कर पल्ला झाड लेना चाहते हो कि अन्य देशों की भी करेंसी गिरी है, तो
क्या विपक्ष इस बात की अनुशंषा कर दे...........
-क्या रुपये की गिरती कीमत पर चिंता व्यक्त कर देना काफी है और आप देश को सोना गिरवी रखने की सोचने
लगे, तो क्या विपक्ष आपको समर्थन दे दे.............

प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जी कांग्रेस ने कभी सामूहिक जिम्मेदारी को पनपने नहीं दिया क्यूंकि कांग्रेस की नज़र हमेशा वोट बैंक पर रहती है जिसकी वजह से "राष्ट्रवाद"को कांग्रेस ने देश में उभरने ही नहीं दिया, और जब "राष्ट्रवाद"ही नहीं है देश में तो "सामूहिक जिम्मेदारी" का तो मतलब ही नहीं पैदा होता जिसकी वजह से किसी विषय पर कांग्रेस ने "राष्ट्रनीति" बनाने की कोशिश नहीं की, चाहे वो आंतरिक सुरक्षा हो या बाहरी ताकतों से सुरक्षा, चाहे आर्थिक निति हो, और चाहे शिक्षा।
फिर किसलिए और कैसा सहयोग चाहते हैं मनमोहन सिंह जी ?

लगता है चुनाव आने वाला ह..

एक नन्हा मेमना और
उसकी माँ बकरी, जा रहे थे जंगल
में राह थी संकरी। अचानक
सामने से आ गया एक शेर, लेकिन
अब तो हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता, बकरी और मेमने
की हालत खस्ता। उधर शेर के
कदम धरती नापें, इधर ये
दोनों थर-थर कापें। अब तो शेर आ
गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे बच्चे को थामने। छिटककर
बोला बकरी का बच्चा- शेर
अंकल! क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा? शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा मेमने के
सिर पर फिराया। बोला- हे बकरी - कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव! चिरायु भव! कर
कलरव! हो उत्सव! साबुत रहें तेरे सब
अवयव। आशीष देता ये पशु-पुंगव-
शेर, कि अब नहीं होगा कोई
अंधेरा उछलो, कूदो, नाचो और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर शेर कर
गया प्रस्थान, बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है, भला ये शेर
किसी पर रहम खानेवाला है, लगता है जंगल में चुनाव
आने वाला ह..

सुदर्शन चक्र . Sudarshan Chakra




भगवान विष्णु व श्री कृष्ण के हर चित्र व मूर्ति में उन्हें सुदर्शन चक्र धारण किए दिखाया जाता है।

यह सुदर्शन चक्र भगवान शंकर ने ही जगत कल्याण के लिए भगवान विष्णु को दिया था।

इस संबंध में शिवमहापुराण के कोटिरुद्रसंहिता में एक कथा का उल्लेख है।

प्राचीन समय में 'वीतमन्यु' नामक एक ब्राह्मण थे। वह वेदों के ज्ञाता थे। उनकी 'आत्रेयी' नाम की पत्नी थी, जो सदाचार युक्त थीं। उन्हें लोग 'धर्मशीला' के नाम से भी बुलाते थे। इस ब्राह्मण दंपति का एक पुत्र था, जिसका नाम 'उपमन्यु' था। परिवार बेहद निर्धनता में पल रहा था। धर्मशीला अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकती थी। वह बालक दूध के स्वाद से अनभिज्ञ था। धर्मशीला उसे चावल का धोवन ही दूध कहकर पिलाया करती थी।

एक दिन ऋषि वीतमन्यु अपने पुत्र के साथ कहीं प्रीतिभोज में गये। वहाँ उपमन्यु ने दूध से बनी हुई खीर का भोजन किया, तब उसे दूध के वास्तविक स्वाद का पता लग गया। घर आकर उसने चावल के धोवन को पीने से इंकार कर दिया।

दूध पाने के लिए हठ पर अड़े बालक से उसकी माँ धर्मशीला ने कहा- "पुत्र, यदि तुम दूध को क्या, उससे भी अधिक पुष्टिकारक तथा स्वादयुक्त पेय पीना चाहते हो तो विरूपाक्ष महादेव की सेवा करो। उनकी कृपा से अमृत भी प्राप्त हो सकता है।"

उपमन्यु ने अपनी माँ से पूछा- "माता, आप जिन विरूपाक्ष भगवान की सेवा-पूजा करने को कह रही हैं, वे कौन हैं?"

धर्मशीला ने अपने पुत्र को बताया कि

- प्राचीन काल में श्रीदामा नाम से विख्यात एक महान असुर राज था। उसने सारे संसार को अपने अधीन करके लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। उसके यश और प्रताप से तीनों लोक श्रीहीन हो गये। उसका मान इतना बढ़ गया था कि वह भगवान विष्णु के श्रीवत्स को ही छीन लेने की योजना बनाने लगा। उस महाबलशाली असुर की इस दूषित मनोभावना को जानकर उसे मारने की इच्छा से भगवान विष्णु महेश्वर शिव के पास गये। उस समय महेश्वर हिमालय की ऊंची चोटी पर योगमग्न थे। तब भगवान विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर एक हजार वर्ष तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर परब्रह्म की उपासना करते रहे। भगवान विष्णु की इस प्रकार कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें 'सुदर्शन चक्र' प्रदान किया।

उन्होंने सुदर्शन चक्र को देते हुए भगवान विष्णु से कहा- "देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान, धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं।

आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें। तब भगवान विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार डाला।

भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति से सम्बन्धित एक अन्य प्रसंग निम्नलिखित है-

एक बार जब दैत्यों के अत्याचार बहुत बढ़ गए तब सभी देवता श्रीहरि विष्णु के पास आए। तब भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की विधिपूर्वक आराधना की। वे हजार नामों से शिव की स्तुति करने लगे। वे प्रत्येक नाम पर एक कमल पुष्प भगवान शिव को चढ़ाते। तब भगवान शंकर ने विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उनके द्वारा लाए एक हजार कमल में से एक कमल का फूल छिपा दिया। शिव की माया के कारण विष्णु को यह पता न चला। एक फूल कम पाकर भगवान विष्णु उसे ढूंढने लगे। परंतु फूल नहीं मिला। तब विष्णु ने एक फूल की पूर्ति के लिए अपना एक नेत्र निकालकर शिव को अर्पित कर दिया। विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और श्रीहरि के समक्ष प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा। यहाँ देंखे - http://www.youtube.com/watch?v=yom1lxC1oso

तब विष्णु ने दैत्यों को समाप्त करने के लिए अजेय शस्त्र का वरदान मांगा। तब भगवान शंकर ने विष्णु को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। विष्णु ने उस चक्र से दैत्यों का संहार कर दिया। इस प्रकार देवताओं को दैत्यों से मुक्ति मिली तथा सुदर्शन चक्र उनके स्वरूप के साथ सदैव के लिए जुड़ गया।

यह चक्र भगवान विष्णु को 'हरिश्वरलिंग' (शंकर) से प्राप्त हुआ था। सुदर्शन चक्र को विष्णु ने उनके कृष्ण के अवतार में धारण किया था। श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था। सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ अस्त्र है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इस चक्र ने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अतुलनीय भूमिका का निर्वाह किया था.

चक्र से सम्बंधित अन्य कथाएं -

(1) कौरवों-पांडवों का महाभारत समाप्त हो चुका था। विजयी पांडवों में अब यह बात घर कर गई कि वे सबसे अधिक बलवान हैं। उन्होंने ना जाने कितने ही रथी,महारथी,वीर,महावीर,बड़े बड़े लड़ाकों को मृत्यु की शैया पर सुला दिया। मगर फैसला कौन करे कि जो हैं उनमे से श्रेष्ठ कौन है। सब लोग श्रीकृष्ण के पास गए। उन्होंने कहा, मैं भी मैदान में था, इसलिए किसी और से पूछना पड़ेगा। वे बर्बरीक के पास गए। जिन्होंने पेड़ से समस्त महाभारत देखा था। श्रीकृष्ण बोले, बर्बरीक बताओ क्या हुआ, किसने किस को मारा। बर्बरीक कहने लगा,मैंने तो पूरे महाभारत में केवल श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही देखा जो सब को मार रहा था। मुझे तो श्रीकृष्ण के अलावा किसी की माया, शक्ति,वीरता नजर नही आई।

(2) मगध का राजा जरासंध बहुत शक्तिशाली और क्रूर था। उसके पास अनगिनत सैनिक और दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे। यही कारण था कि आस-पास के सभी राजा उसके प्रति मित्रता का भाव रखते थे। जरासंध की अस्ति और प्रस्ति नामक दो पुत्रियाँ थीं। उनका विवाह मथुरा के राजा कंस के साथ हुआ था। कंस अत्यंत पापी और दुष्ट राजा था। प्रजा को उसके अत्याचारों से बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। दामाद की मृत्यु की खबर सुनकर जरासंध क्रोधित हो उठा। प्रतिशोध की ज्वाला में जलते जरासंध ने कई बार मथुरा पर आक्रमण किया। किंतु हर बार श्रीकृष्ण उसे पराजित कर जीवित छोड़ देते थे। एक बार उसने कलिंगराज पौंड्रक और काशीराज के साथ मिलकर मथुरा पर आक्रमण किया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भी पराजित कर दिया। जरासंध तो भाग निकला किंतु पौंड्रक और काशीराज भगवान के हाथों मारे गए। काशीराज के बाद उसका पुत्र काशीराज बना और श्रीकृष्ण से बदला लेने का निश्चय किया। वह श्रीकृष्ण की शक्ति जानता था। इसलिए उसने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्हें समाप्त करने का वर माँगा। भगवान शिव ने उसे कोई अन्य वर माँगने को कहा। किंतु वह अपनी माँग पर अड़ा रहा। तब शिव ने मंत्रों से एक भयंकर कृत्या बनाई और उसे देते हुए बोले-“वत्स! तुम इसे जिस दिशा में जाने का आदेश दोगे यह उसी दिशा में स्थित राज्य को जलाकर राख कर देगी। लेकिन ध्यान रखना, इसका प्रयोग किसी ब्राह्मण भक्त पर मत करना। वरना इसका प्रभाव निष्फल हो जाएगा।” यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। इधर, दुष्ट कालयवन का वध करने के बाद श्रीकृष्ण सभी मथुरावासियों को लेकर द्वारिका आ गए थे। काशीराज ने श्रीकृष्ण का वध करने के लिए कृत्या को द्वारिका की ओर भेजा। काशीराज को यह ज्ञान नहीं था कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण भक्त हैं। इसलिए द्वारिका पहुँचकर भी कृत्या उनका कुछ अहित न कर पाई। उल्टे श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उसकी ओर चला दिया। सुदर्शन भयंकर अग्नि उगलते हुए कृत्या की ओर झपटा। प्राण संकट में देख कृत्या भयभीत होकर काशी की ओर भागी। सुदर्शन चक्र भी उसका पीछा करने लगा। काशी पहुँचकर सुदर्शन ने कृत्या को भस्म कर दिया। किंतु फिर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ और उसने काशी को भस्म कर दिया।

कालान्तर में व्ररुणा और असी नामक दो नदियों के मध्य यह नगर पुनः बसा। व्ररुणा और असी नदियों के मध्य बसे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ गया। इस प्रकार काशी का वाराणसी के रूप में पुनर्जन्म हुआ।

चक्र पूजन - जीवन में भूलना, गुमना, चले जाना, बलात ले लेना अथवा लेने के बाद कोई भी वस्तु वापस नहीं मिलना ऐसी घटनाएं स्वाभाविक रूप से घटित होती रहती है।

ऐसी स्थिति में कार्तविर्यार्जुन राजा जो हैहय वंश के थे तथा भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं, इनकी साधना करने से इस प्रकार की समस्या से तुरंत मुक्ति मिल जाती है।

सुदर्शन चक्र के बारे में शास्त्रों में वर्णित है कि वह किसी भी दिशा अथवा किसी भी लोक में जाकर वांछित सामग्री खोज लाने में सक्षम है।

उनकी साधना के लिए दीपक लगाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठें। अपनी गुम वस्तु की कामना को उच्चारण कर भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्रधारी रूप का ध्यान करें।

चक्र को रक्त वर्ण में ध्याएं एवं इस मंत्र का विश्वासपूर्वक जप करें।

मंत्र :- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान।
यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्टं च लभ्यते।।

यहाँ अवश्य देंखे (Please Click Here) - http://www.facebook.com/notes/vijay-chouksey/4-sudarshan-chakra/379720475484319

सभी बंधुओं को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें...

Sunday, August 25, 2013

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -7(History of Ayodhya and Ram Temple-7)



मुसलमानो द्वारा श्री राम जन्म भूमि के उद्धार का प्रयास 
सन 1857 की अंग्रेज़ो के खिलाफ हुई क्रांति मे बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित करके विद्रोह का नारा बुलंद किया गया। उस समय अयोध्या के हिन्दू राजा देवी बख्श सिंह
,गोंडा के नरेश एवं बाबा  राम चरणदास की अध्यक्षता मे संगठित हो गए । उस समय समय बागी मुसलमानो के नेता थे आमिर अली। आमिर अली ने अयोध्या के समस्त मुसलमानो को इकट्ठा करके कहा कि विरादरे वतन बेगमों के जेवरातों को बचाने मे हमारे हिन्दू भाइयों ने जिस परकर बहुदृपूर्व युद्ध किया है उसे हम भुला नहीं सकते । सम्राट बहादुरशाह जफर को अपना सम्राट मानकर हमारे हिन्दू भाई अपना खून बहा रहे हैं। इसलिए ये हमारा फर्ज बनता है कि हिंदुओं के खुदा श्रीरामचंद्र जी कि पैदायिसी जगह जो बाबरी मस्जिद बनी है, वह हम इन्हे बख़ुशी सपुर्द कर दे क्यूकी हिन्दू मुसलमान नाइत्फ़ाकी कि सबसे बड़ी जड़ यह बाबरी मस्जिद ही है । ऐसा करके हम इनके दिल पर फतह पा जाएंगे ।
ये बात भी सत्य है कि आमिर अली के इस प्रस्ताव का सभी मुसलमानो ने खुले दिल से एक स्वर से समर्थन किया । यहाँ एक बात जो ध्यान देने योग्य है कि आमिर अली के इस प्रस्ताव के बाद ये बात स्पष्ट हो जाती है कि मुसलमान भी जानते और मानते थे कि बाबरी ढांचा रामलला के जन्मभूमि पर बने मंदिर को ध्ब्वंस करके ही बनाया गया है। चूकी मुसलमान यह बात समझ चुके थी कि हिंदु कभी किसी के अस्तित्व के लिए खतरा नहीं हो सकता मगर अंग्रेज़ उनके समूल विनाश के उद्देश मे लगे हुए थे अतः इस बात पर एक सहमति बनती नजर आई ।
यह बात जब अङ्ग्रेज़ी सरकार को पता चली कि मुसलमान बाबरी मस्जिद हिंदुओं के हवाले करने का मन बना चुके हैं तो उनमे घबराहट फैल गयी। इस घबराहट का प्रमाण हम कर्नल मार्टिन कि एक रिपोर्ट मे देख सकते हैं जो जो सुल्तानपुर गजेटियर के पृष्ठ 36 पर छपी थी
“अयोध्या कि बाबरी मस्जिद को मुसलमानो द्वारा हिंदुओं को दिये जाने कि खबर सुनकर हम लोगो मे घबराहट फैल गयी है और यह विश्वास हो गया है कि हिंदुस्तान से अंग्रेज़ अब खतम हो जाएंगे । लेकिन अच्छा हुआ कि गदर का पासा पलट गया और आमिर अली तथा बलवाई बाबा राम चरण दास को फांसी पर लटका दिया गया जिससे फैजाबाद के बलवाइयों कि कमर टूट गयी और पूरे फैजाबाद जिले पर हमारा रोब जम गया क्यूकी गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह पहले ही फरार हो चुके थे ॥
मुसलमानो द्वारा आमिर अली के रूप मे किया गया जमभूमि के उद्धार हेतु यह सतप्रयत्न अंग्रेज़ो कि कुटिल चल और दमनचक्र के कारण विफल हो गया ।
18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ मे बाबा राम चरण दास और आमिर अली दोनों को एक साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया । मुसलमानो ने हिंदुओं पर चाहे कितने भी जुल्म किए हो मगर हिन्दू जनता मुसलमानो के इस एकमात्र प्रयास को भूली नहीं और बहुत डीनो तक आमिर अली और  बाबा राम चरण दास कि याद मे उस इमली के पेड़ पर पुजा अर्चना और अक्षत चढ़ाती रही। जब अंग्रेज़ो ने ये देखा कि ये पेड़ देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया...
इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण मुसलमानो का हिंदुओं को बाबरी ढांचा सौपने का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया ...
इसके बाद अङ्ग्रेज़ी राज मे कुछ छिटपुट घटनाएँ एवं प्रतिरोध होते रहे। आजादी के बाद के घटनाक्रम का वर्णन करने से पूर्व सर्वप्रथम कुछ अन्य घटनाओं और स्थलों का वर्णन करना प्रासंगिक है
,जिससे बाबरी ढांचे मे प्राचीन मंदिर के चिन्ह दर्शनीय होते हैं ।
इन सारे चिन्हों के बारे मे विस्तृत  विवरण मै अपनी अगली पोस्ट मे दूंगा....


जय श्री राम

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -6(History of Ayodhya and Ram Temple-6)


नबाब सहादत अली के समय जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध: अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाच आक्रमण किया गया और जन्मभूमिपर अधिकार हो गया । यह युद्ध सुल्तानपुर गजेटियर के आधार पर 1763 ईसवी मे हुआ था।  मगर हर बार की तरह मुह की खाने के बाद अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ी और संगठित शाही सेना जन्मभूमि को अपने अधिकार मे ले लेती थी। मगर इसके बाद भी आस पास के हिंदुओं ने अगले कई सालो तक जन्मभूमि के रक्षार्थ  युद्ध जारी रखा । इस रोज रोज के आक्रमण से जन्मभूमि पर कब्जा बनाए रखने के लिए मुगल सेना की काफी क्षति हो रही थी और इसका बाबर की तरह नबाब सहादत ली ने भी हिंदुओं और मुसलमानो को एक ही स्थान पर इबादत और पुजा की छूट दे दी । तब जा के कुछ हद तक उसने नुकसान पर काबू पाया 
लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की
लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजज्त दे दी ,तब जा के झगड़ा शांत हुआ ।नबाब सहादत अली के लखनऊ की मसनद पर बैठने से लेकर पाँच वर्ष तक लगातार हिंदुओं के बाबरी मस्जिद पर दखलयाबो हासिल करने के लिए पाँच हमले हुए।
“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62”
नासिरुद्दीन हैदर  के समय मे तीन आक्रमण :मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये । तीसरे आक्रमण मे हिन्दू संगठित थे अबकी बार डटकर नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दू और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । शाही सेना के सैनिक अधिक संख्या मे मारे गये। इस संग्राम मे भीती,हंसवर,,मकरही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। शाही सेना इन्हे पछाड़ती हुई  हनुमानगढ़ी  तक ले गयी। यहाँ चिमटाधारी साधुओं की सेना हिंदुओं से आ मिली और। इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये  और उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद बड़ी शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया।

पियर्सन बहराइच गजेटियर मे लिखता है
“जन्मभूमि पर अधिकार करने के लिए नवाब नसीरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के ताल्लुकेदार के साथ हिंदुओं की एक जबरदस्त भीड़ ने तीन बार हमला किया। आखिरी हमले मे शाही सेना के पाँव उखड़ गए और वह मैदान से भाग खड़ी हुई । किन्तु तीसरे दिन आने वाली जबरदस्त शाही हुक्म से लड़कर हिन्दू बुरी तरह हार गये और उनके हाथ से जन्मभूमि निकल गयी । “बहराइच गजेटियर पृष्ठ 73”
नबाब वाजीद अली के समय दो आक्रमण: नाबाब वाजीद आली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर मे कनिंघम के अनुसार इसबार शाही सेना किनारे थी और हिंदुओं और धर्मांतरित कराये गए हिंदुओं(नए नए बने मुसलमानो) को आपस मे लड़ कर निपटारा करने की छूट दे दी गयी थी। इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध मे मुसलमान बुरी तरह पराजित हुए। फैजाबाद गजेटियर के अनुसार क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने उनके मकान तोड़ डाले कबरे तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमर करने लगे यहाँ तक की हिंदुओं ने मुर्गियों तक को जिंदा नहीं छोड़ा मगर हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियॉं और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई। मगर चूकी अब अङ्ग्रेज़ी प्रभाव हिंदुस्थान मे था अतः शाही सेना शुरू मे चुप थी अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था मुसलमान अयोध्या छोड़कर अपनी जान ले कर भाग निकले थे ।,इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये अयोध्या का सबसे  बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था। मुसलमानो की अत्यंत दुर्दशा और हार देखते हुए शाही सेना ने हस्तक्षेप किया जिसमे अब ज्यादा अंग्रेज़ थे। सारे शहर मे कर्फ़्यू आर्डर कर दिया गया । उस समय अयोध्या के राजा मानसिंह  और टिकैतराय ने नाबाब वाजीद आली शाह से कहकर हिंदुओं को फिर चबूतरा वापस दिलवाया । हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे पुनः रामलला की स्थापना की गयी।
कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई उन्होने नबाब से जाके इस बात की शिकायत की नाबाबों ने एक बार हिंदुओं का क्रोध और राजनीतिक स्थिति देखते हुए हस कर एक कूटनीतिक उत्तर दिया की
हम इश्क के बंदे हैं मजहब से नहीं वाकिफ। गर काबा हुआ तो क्या?बुतखाना हुआ तो क्या??

नबाब के इस कूटनीति को अंग्रेज़ो का भी साथ मिला । मगर नबाब के इस निर्णय से जेहाद के लिए प्रतिबद्ध मौलवी आली आमिर सहमत नहीं हुआ ॥
मौलवी अली आमिर द्वारा जेहाद: नबाब के उक्त निर्णय पर अमेठी राज्य के पीर मौलवी अमीर अली ने जेहाद करने के लिए मुसलमानो को संगठित किया और जन्मभूमि पर आक्रमण करने के लिए कुछ किया। रास्ते मे भीती के राजकुमार जयदत्त सिंह से रौनाही के पास उसे रोककर घोर संग्राम किया और उसकी जेहादी सेना समेत उसे समाप्त कर दिया।
मदीतुल औलिया मे लिखा है की
“मौलवी साहब ने जुमे की नमाज पढ़ी।तकरीबन 170 आदमी जेहाद मे लेकर रवाना हुए । सन 1721 हिजरी 1772 हिजरी बकायदा मोकिद हुआ जेहाद का नाम सुनकर सैकड़ो मुसलमान शरीर जेहाद हुए। तकरीबन दो हजार की जमात रही होगी रौनही के पास जंग करते हुए शहीद हुए”  मदीतुल औलिया पृष्ठ 55
लेख के अगले अगले अंक मे पढ़िये किस प्रकार हिंदुस्थान के मुसलमानो ने स्वयं आगे  आ के रामजन्मभूमि पर पुनः मंदिर बनवाने का प्रयास किया

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -5(History of Ayodhya and Ram Temple-5)




जन्मभूमि के लिए हुए अनेको संघर्ष : स्वामी बलरामचारी, बाबा वैष्णव दास, एवं सिक्खो के गुरुगोविंद सिंह द्वारा जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध, औजरंगजेब की करारी हार। सन 1664 के हमले मे हजारो निर्दोष हिंदुओं की हत्या और बचा हुआ राम मंदिर ध्वस्त ॥
RAM MANDIR DEMOLISHED BY MUGHALS
(5)स्वामी बलरामचारी द्वारा आक्रमण: रानी जयराज कुमारी और   स्वामी महेश्वरानंद   जी के बाद यद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया।  स्वामी बलरामचारी  जी ने गांवो गांवो में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवको और सन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी. स्वामी बालरामचारी  का २० वां आक्रमण बहुत प्रबल था  और शाही सेना को काफी क्षति उठानी पड़ी। उस समय का मुग़ल शासक अकबर था वो स्वामी बलरामचारी की वीरता से प्रभावित हुआ और शाही सेना का हर आते हुए दिन के साथ  इन युद्धों से क्षय हो रहा था..धीरे धीरे देश के हालत मुगलों के खिलाफ होते जा रहे थे अतः अकबर ने अपने दरबारी टोडरमल और बीरबल से इसका हल निकालने को कहा। 
विवादित  ढांचे के सामने स्वामी बलरामचारी ने एक चबूतरा बनवाया था जब जन्मभूमि थोड़े दिनों के लिए उनके अधिकार में आई थी। अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया और पयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु हो गयी ..इस प्रकार स्वामी बलरामचारी के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष के कारण अकबर ने विवादित ढांचे के सामने एक छोटा मंदिर बनवाकर आने वाले आक्रमणों और हिन्दुस्थान पर मुगलों की  ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास किया. 
इस नीति से कुछ दिनो के लिए ये झगड़ा शांत हो गया। उस चबूतरे पर स्थित भगवान राम की मूर्ति का पूजन पाठ बहुत दिनो तक अबाध गति से चलता रहा। हिंदुओं के पुजा पाठ या घंटा बजने पर कोई मुसलमान विरोध नहीं करता यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।सन 1640 मे सनकी इस्लामिक शासक औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो पूर्णतया हिंदुविरोधी और दमन करने वाला था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।
(6) बाबा वैष्णव दास के नेतृत्व मे आक्रमण: राजयसिंहासन पर बैठते हि सबसे पहले औरंगजेब का ध्यान अयोध्या की ओर गया । हिंदुधर्मविरोधी औरंगजेब ने अपने सिपहसालार जाँबाज खा के नेतृत्व मे एक विशाल सेना अयोध्या की ओर भेज दी। पुजारियों को ये बात पहले हि मालूम हो गयी अतः उन्होने भगवान की मूर्ति पहले ही छिपा दी। पुजारियों ने रातो रात घूमकर हिंदुओं को इकट्ठा किया ताकि प्राण रहने तक जन्मभूमि की रक्षा की जा सके। उन दिनो अयोध्या के अहिल्याघाट पर परशुराम मठ मे समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी दक्षिण भारत से यहाँ विधर्मियों से देश को मुक्त करने के प्रयास मे आए हुए थे। औरंगजेब के समय बाबा श्री वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे और अंततः वीरगति को प्राप्त हुये। ठाकुर गजराज सिंह का मकान तक बादशाह के हुक्म पर खुदवा डाला। ठाकुर गजराज सिंह के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय सिर पर पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते,उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे,पगड़ी नहीं बाधेंगे। तत्कालीन कवि जयराज के एक दोहे मे ये भीष्म प्रतिज्ञा इस प्रकार वर्णित है ॥
        जन्मभूमि उद्धार होय, जा दिन बरी भाग।
        छाता जग पनही नहीं
,
 और न बांधहि पाग॥ 

(7) 
) बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खो के गुरुगोविंद सिंह द्वारा जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध: जैसा की पहले बताया जा चुका है की औरंगजेब ने गद्दी पर बैठते ही मंदिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व मे एक जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास को इस बात की भनक लगी बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ  की सेना से सात दिनो तक भीषण युद्ध किया । चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलो की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी ।
जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को  50 हजार सैनिको की सेना देकर अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को तहस नहस कर के वापस आना है ,यह समय सन 1680 का था ।
बाबा वैष्णव दास ने अपने संदेशवाहको द्वारा सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के माध्यम संदेश भेजा । गुरुगोविंद सिंह उस समय आगरे मे सिक्खों की एक सेना ले कर मुगलो को ठिकाने लगा रहे थे। पत्र पा के गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ज्ञातव्य रहे की ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद्सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है। बाबा वैष्णव दास के जासूसों द्वारा ये खबर आई की हसन आली 50 हजार की सेना और साथ मे तोपखाना ले कर अयोध्या की ओर आ रहा है । इसे देखते हुए एक रणनीतिक निर्णय के तहत बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खो के गुरुगोविंद सिंह ने अपनी सेना को तीन भागों मे विभक्त कर दिया । पहला दल सिक्खों के एक छोटे से तोपखाने के साथ फैजाबाद के वर्तमान सहादतगंज के खेतो के पास छिप गए । दूसरा दल जो क्षत्रियों का था वो रुदौली मे इस्लामिक सेना से लोहा लेने लगे। और बाबा वैष्णव दास का तीसरा दल चिमटाधारी जालपा नाला पर सरपत के जंगलो मे जगह ले कर  मुगलो की प्रतीक्षा करने लगा।
शाही सेना का सामना सर्वप्रथम रुदौली के क्षत्रियों से हुआ एक साधारण सी लड़ाई के बाद पूर्वनिर्धारित रणनीति के अनुसार वो पीछे हट गए और चुपचाप सिक्खों की सेना से मिल गए । मुगल सेना ने समझा की हिन्दू पराजित हो कर भाग गये,इसी समय गुरुगोविंद सिंह के नेतृत्व मे सिक्खों का दल उन पर टूट पड़ा,दूसरे तरफ से हिंदुओं का दल भी टूट पड़ा सिक्खों ने मुगलो की सेना के शाही तोपखाने पर अधिकार कर लिया दोनों तरफ से हुए सुनियोजित हमलो से मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था इस करारी हार के बाद औरंगजेब ने कुछ समय तक अयोध्या पर हमले का कार्यक्रम स्थगित कर दिया । हिंदुओं से मिली इस हार का वर्णन औरंगजेब आलमगीर नामे मे कुछ इस प्रकार लिखता है
“बाबरी मस्जिद के लिए काफिरो ने 20 हमले किए सबमे लापरवाही की वजह से शाही फौज ने शिकस्त खायी। आखिरी हमला जो गुरुगोविंदसिंह के साथ बाबा वैष्णव दास का हुआ उसमे शाही फौज का सबसे बड़ा नुकसान हुआ । इस लड़ाई मे शहजादा मनसबदार सरदार हसन ली खाँ भी मारे गये ।"    संदर्भ: आलमगीर पृष्ठ 623                                                                                                           
इस युद्ध के बाद साल तक औरंगजेब ने अयोध्या पर हमला करने की हिम्मत नहीं की। मगर इन चार वर्षों मे हिन्दू कुछ असावधान हो गए। औरंगजेब ने इसका लाभ उठाते हुए सान 1664 मे पुनः एक बार श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया ।इन चार वर्षों मे सभी एकत्रित हिन्दू अपने अपने क्षेत्रों मे चले गए थे।अतः ये एकतरफा युद्ध था हालाँकि कुछ पुजारियों और हिंदुओं ने मंदिर रक्षा का प्रयत्न किया मगर शाही सेना के सामने निहत्थे हिन्दू जीतने की स्थिति मे नहीं थे,पुजारियों ने रामलला की प्रतिमा छिपा दी । इस हमले मे शाही फौज ने लगभग 10 हजार हिंदुओं की हत्या कर दी ।मंदिर के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलो ने उसमे फेककर चारो ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है,और मंदिर के पूर्वी द्वार पर स्थित है जिसे मुसलमान अपनी संपत्ति बताते हैं।
औरंगजेब ने इसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है । 
“लगातार चार बरस तक चुप रहने के बाद रमजान की 27वी तारीख को शाही फौज ने फिर अयोध्या की रामजन्मभूमि पर हमला किया । इस अचानक हमले मे दस हजार हिन्दू मारे गये। उनका चबूतरा और मंदिर खोदकर ज़मींदोज़ कर दिया गया । इस वक्त तक वह शाही देखरेख मे है। संदर्भ: आलमगीरनामा पृष्ठ 630                                                                                                               
शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था । औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी.  
 लेख के  अगले भाग मे नाबाब शाहादत अली,नसीरुद्दीन,वाजीद ली शाह के समय हुए  युद्धों का वर्ण

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -4(History of Ayodhya and Ram Temple-4))



जन्मभूमि के लिए हुए अनेको संघर्ष:
पिछले भाग मे आप ने पढ़ा की किस प्रकार  बाबर,वजीर मीरबाँकी खा के अत्याचारों कूटनीति और महात्माश्यामनन्द जी महाराज के दो आस्तीन में छुरा भोंकने वाले शिष्यों हजरत कजल अब्बास मूसा और जलालशाह के धोखेबाजी के फलस्वरूप रामजन्मभूमि का मंदिर गिराया गया और एक विवादित ढांचें (जिसे कुछ भाई मस्जिद का नाम देते हैं) का निर्माण हुआ ॥ अब जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए हुए युद्धों का वर्णन ॥ बाबर के समय में चार आक्रमण:
(१) राजा महताब सिंह का पहला आक्रमण: बाबर के समय जन्मभूमि को मुसलमानों से मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम आक्रमण भीटी के राजा महताब सिंह द्वारा किया गया। जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय सम्पूर्ण हिन्दू जनमानस में एक प्रकार से क्रोध और क्षोभ की लहर दौड़ गयी।  उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। चुकी महताब सिंह के पास सेना छोटी थी अतः उन्हें परिणाम मालूम था मगर उन्होंने निश्चय किया की रामलला के मंदिर को अपने जीते जी ध्वस्त नहीं होने देंगे उन्होंने सुबह सुबह अपने आदमियों को भेजकर सेना तथा कुछ हिन्दुओं को की सहायता से १ लाख चौहत्तर हजार लोगो को तैयार कर लिया. बाबर की सेना में ४ लाख ५० हजार सैनिक थे। युद्ध का परिणाम एकपक्षीय हो सकता था मगर रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे। भीटी के राजा महताब सिंह ने कहा की बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकला था यदि वीरगति को प्राप्त हुआ तो सीधा स्वर्ग गमन होगा और उन्होंने युद्ध शुरू कर दिया । रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए बाबर की ४ लाख ५० हजार की सेना के अब तीन  हजार एक सौ पैतालीस सैनिक बचे रहे। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवाया।   

(2) देवीदीन  पाण्डेय द्वारा द्वितीय आक्रमण:(३ जून १५१८-९ जून १५१८)  राजा महताब सिंह और लाखो हिन्दुओं को क़त्ल करने के बाद  मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ । उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गांव है वहां के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों  सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥   
देवीदीन  पाण्डेय  ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी।  श्री राम ने महर्षि भरद्वाज से प्रयाग में दीक्षा ग्रहण की थी और अश्वमेघ में हमे १० हजार बीघे का द्वेगांवा नामक ग्राम दिया था..आज उसी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥
देवीदीन 
पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर जबरजस्त धावा बोल दिया इस एकाएक हुए आक्रमण से  मीरबाँकी  घबरा उठा।  शाही सेना से लगातार ५ दिनों तक युद्ध हुआ शाही सेना संख्या बल में काफी बड़ी थी और रामभक्त काम मगर राम के लिए बलिदान देने को तैयार । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईटसे पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया।  देवीदीन पाण्डेय की खोपड़ी बुरी तरह फट गयी मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया और मीरबाँकी को ललकारा। मीरबाँकी तो छिप कर बच निकला मगर तलवार के वार से महावत सहित हाथी मर गया।  इसी बीच मीरबाँकी ने गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर गति को प्राप्त हुए.जैसा की देवीदीन पाण्डेय की इच्छा थी उनका अंतिम संस्कार विल्हारी घाट पर किया गया। यह आक्रमण देवीदीन जी ने ३ जून सन १५१८ को किया था और ९ जून १५१८ को २ बजे दिन में देवीदीन पाण्डेय वीरगति को प्राप्त हो गए।  देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद हैं॥
इस युद्ध की प्रमाणिकता बाबर द्वारा लिखित "तुजुक बाबरी" से प्रमाणित होती है...बाबर के शब्दों में.....
"जन्मभूमि को शाही अख्तियारों से बाहर करने के लिए जो चार हमले हुए उनमे से सबसे बड़ा हमला देवीदीन पांडे का था, इस शख्स ने एक बार में सिर्फ तीन घंटे के भीतर गोलियों की बौछार के रहते हुए भी ,शाही फ़ौज के सात सौ आदमियों का क़त्ल किया। सिपाही की ईट से खोपड़ी  चकनाचूर हो जाने के बाद भी वह उसे अपनी पगड़ी के कपडे से बांध कर लड़ा जैसे किसी बारूद की थैली में पलीता लगा दिया गया हो आखिरी में वजीर मीरबाँकी की गोली से उसकी मृत्यु हुई ॥     सन्दर्भ "तुजुक बाबरी पृष्ठ ५४०"

(3)हंसवर राजा रणविजय सिंह द्वारा तीसरा आक्रमण: देवीदीन पाण्डेय की मृत्यु के १५ दिन  बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने आक्रमण करने को सोचा।  हालाकी रणविजय सिंह की सेना में सिर्फ २५ हजार सैनिक थे और युद्ध एकतरफा था मीरबाँकी की सेना बड़ी और शस्त्रो से सुसज्जित थी ,इसके बाद भी रणविजय सिंह ने जन्मभूमि रक्षार्थ अपने क्षत्रियोचित धर्म का पालन करते हुए युद्ध को श्रेयस्कर समझा। 10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए।

(4) माताओं बहनों का जन्मभूमि के रक्षार्थ आक्रमण: रानी जयराज कुमारी का नारी सेना बना कर जन्मभूमि को मुक्त करने का प्रयास। रानी जयराज कुमारी हंसवर के  स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह की पत्नी थ।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके  कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया। बाबर की अपार सैन्य सेना के सामने ३ हजार नारियों की सेना कुछ नहीं थी अतः उन्होंने गुरिल्ला युद्ध जारी रखा और वो युद्ध रानी जयराज कुमारी ने हुमायूँ के शासनकाल तक जारी रखा जब तक की जन्मभूमि को उन्होंने अपने कब्जे में नहीं ले लिया। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तो को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके  जयराज कुमारी की सहायता  की। चूकी रामजन्म भूमि के लिए संतो और छोटे राजाओं के पास शाही सेना के बराबर संख्याबल की सेना नहीं होती थी अतः स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये और १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।
लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने  पूर्ण रूप से तैयार शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया।
इस युद्ध किया वर्णन दरबरे अकबरी कुछ इस प्रकार करता है॥
"सुल्ताने हिन्द बादशाह हुमायूँ के वक्त मे सन्यासी स्वामी महेश्वरानन्द और रानी जयराज कुमारी दोनों अयोध्या के आस पास के हिंदुओं को इकट्ठा करके लगातार 10 हमले करते रहे । रानी जयराज कुमारी ने तीन हज़ार औरतों की फौज लेकर बाबरी मस्जिद पर जो आखिरी हमला करके कामयाबी हासिल की । इस लड़ाई मे बड़ी खूंखार लड़ाई लड़ती हुई जयराजकुमारी मारी गयी और स्वामी महेश्वरानंद भी अपने सब साथियों के साथ लड़ते लड़ते खेत रहे।
संदर्भ: दरबारे अकबरी पृष्ठ 301
लेख के अगले भाग मे मै कुछ अन्य हिन्दू एवं सिक्ख वीरों वर्णन दूंगा जिन्होने  जन्मभूमि के रक्षार्थ अनेकों युद्ध किए और जन्मभूमि को मुक्त करने का प्रयास किया॥

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -3(History of Ayodhya and Ram Temple-3)



भाग दो मे आप ने पढ़ा की किस प्रकार राम जन्मभूमि मंदिर का विध्वंस हिन्दू वीरो की लाशों पर जलालशाह और बाबर ने किया ॥  अब आगे का वर्णन 
अयोध्या मे विवादित ढांचे(बाबरी मस्जिद) का निर्माण और  बाबर की कूटनीति:  जैसा की पहले बताया जा चुका है जलालशाह की आज्ञा से
 मीरबाँकी खा ने तोपों से जन्भूमि पर बने मंदिर को गिरवा दिया और मस्जिद का निर्माण मंदिर की नींव और मंदिर निर्माण के सामग्रियों से ही शुरू हो गया॥ मस्जिद की दिवार को जब मजदूरो ने बनाना शुरू किया तो पूरे दिन जितनी दिवार बनती रात में अपने आप वो गिर जाती ॥ सबके मन मे एक प्रश्न की ये दीवार गिराता कौन है ??मंदिर के चारो ओर सैनिको का पहरा लगा दिया गया,महीनो तक प्रयास होते रहे लाखों रूपये की बर्बादी हुई मगर मस्जिद की एक दिवार तक न बन पाई ॥  हिन्दुस्थान के दो इस्लामिक गद्दारों  ख्वाजा कजल अब्बास मूसा और जलालशाह की सारी सिद्धियाँ उस समय धरी की धरी रह गयी ॥  सारे प्रयासों के पश्चात भी मस्जिद की एक दिवार भी न बन पाने की स्थिति में वजीर मीरबाँकी खा ने विवश हो के बाबर को इस समस्या के बारे में एक पत्र लिखा।  बाबर ने मीरबाँकी खा को पत्र भिजवाया की  मस्जिद निर्माण का काम बंद करके वापस दिल्ल्की आ जाओ । एक बार पुनः जलालशाह ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए ये सन्देश भिजवाया की बाबर अयोध्या आये। 
जलालशाह का पत्र पा के बाबर वापस अयोध्या आया और जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा से इस समस्या से निजात पाने का तरीका पूछा। ख्वाजा कजल अब्बास मूसा  और जलालशाह ने सुझाव दिया की ये काम इस्लाम से प्राप्त की गयी सिद्धियों के वश का नहीं है, अब नीति से काम लेते हुए हमे हिन्दू संतो से वार्ता करनी चाहिए वही अपने प्रभाव और सिद्धियों से कुछ रास्ता निकाल सकते हैं। 
बाबर ने हिन्दू संतो के पास वार्ता का प्रस्ताव भेजा.। उस समय तक जन्मभूमि टूट चुकी थी और अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए कब्रों से पाटना शुरू किया जा चूका था ,पूजा पाठ भजन कीर्तन पर जलालशाह  ने प्रतिबन्ध लगवा दिया था। इन विषम परिस्थितियों में हिन्दू संतो ने बाबर से वार्ता करने का निर्णय लिया जिससे काम जन्मभूमि के पुनरुद्धार का एक रास्ता निकाल सके।

बाबर ने अब धार्मिक सद्भावना की झूटी कूटनीति चलते हुए संतो से  कहा की आप के पूज्य बाबा श्यामनन्द जी के बाद जलालशाह उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी है और ये मस्जिद निर्माण की हठ नहीं छोड़ रहे हैं,आप लोग कुछ उपाय बताएं उसके बदले में हिंदुओं को  पुजा पाठ करने मे छूट दे दी जाएगी॥
हिन्दू महात्माओं ने जन्मभूमि को बचाने का आखिरी प्रयास करते हुए  अपनी सिद्धि से इसका निवारण बताया की यहाँ एक पूर्ण मस्जिद बनाना असंभव कार्य है  मस्जिद के नाम से हनुमान जी इस ढांचे का निर्माण  नहीं होने देंगे ।इसे मस्जिद का रूप मत दीजिये। इसे सीता जी (सीता पाक अरबी मे ) के नाम से बनवाइए ॥और भी कुछ परिवर्तन कराये मस्जिद का रूप न देकर यहाँ हिन्दू महात्माओं को भजन कीर्तन पाठ की स्वतन्त्रता दी जाए चूकी जलालशाह  अपनी मस्जिद की जिद पर अड़ा  था अतः महात्माओं ने सुझाव दिया की एक दिन मुसलमान शुक्रवार के दिन यहाँ जुमे  की नमाज पढ़ सकते हैं।
जलालशाह को हिंदुओं को छूट देने का विचार पसंद नहीं आया मगर कोई रास्ता न बन पड़ने के कारण उन्होने हिंदु  संतों  का ये प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।  मंदिर के निर्माण के प्रयोजन हेतु दिवारे उठाई जाने लगी और दरवाजे पर सीता पाक स्थान फारसी भाषा मे लिखवा दिया गया जिसे सीता रसोई भी कहते हैं॥  नष्ट किया गया सीता पाक स्थान पुनः बनवा दिया गया लकड़ी लगा कर मस्जिद के द्वार मे भी परिवर्तन कर दिया ॥ अब वो स्थान न तो पूर्णरूपेण मंदिर था न ही मस्जिद । मुसलमान वहाँ शुक्रवाकर को जुमे की नमाज अदा करते और बाकी दिन हिंदुओं को भजन और कीर्तन की अनुमति थी॥
इसप्रकार मुगल सम्राट बाबर ने अपनी कूटनीति से अयोध्या मे एक ढांचा तैयार करने मे सफलता प्राप्त की जिसे हमारे कुछ भाई बाबरी मस्जिद का नाम देते हैं॥ यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है किसी भी मस्जिद मे क्या किसी भी हिन्दू को पुजा पाठ या भजन कीर्तन  की इजाजत इस्लाम देता है?? यदि नहीं तो बाबर ने ऐसा क्यू किया?? जाहीर है उसके मन मे उन काफिरो के प्रति प्यार तो उमड़ा नहीं होगा जिनके घर की बहू बेटियों को वो जबरिया अपने हरम मे रखते थी और यदि ये एक धार्मिक सदभाव का नमूना था तो मंदिर को ध्वस्त करते समय 1 लाख 74 हजार हिंदुओं की लाशे गिरते समय बाबर की ये सदभावना कहा थी??
यदि मीरबाँकी एवं बाबर के मंदिर को तोड़ने के निर्णय और उसके तथ्यात्मक और प्रमाणिक विश्लेषण पर आए और उस समय आस पास इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई ये जानने की कोशिश करे..
बाबर के मंदिर को तोड़ने के निर्णय की प्रतिक्रिया के प्रमाण इतिहास में किसी एक जगह संकलित नहीं मिलते हैं इसका कारण ये था की उसके बाद का ज्यादातर इतिहास मुगलों के अनुसार लिखा गया।  कुछ एक मुग़ल कालीन राजपत्रों और दस्तावेजों  के माध्यम से जो बाते उभर कर सामने आई वो निम्नवत हैं.
जब मंदिर तोड़ने का निर्णय लिया गया उस समय बाबर ने व्यापक हिन्दू प्रतिक्रिया को देखते हुए बाहर  के राज्यों से हिन्दुओं को अयोध्या आने पर रोक लगा दिया गया था। सरकार की आज्ञा प्रचारित की गयी की कोई भी ऐसा व्यक्ति जैस्पर ये संदेह हो की वह हिन्दू है और अयोध्या जाना चाहता है उसे कारागार मे डाल दिया जाए। 
सन १९२४ मार्डन
 रिव्यू  नाम के एक पत्र में "राम की अयोध्या नाम" शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जिसके लेखक श्री स्वामी सत्यदेव परिब्रापजक थे जो की एक अत्यंत प्रमाणिक  लेखक थे । स्वामी जी दिल्ली में अपने किसी शोध कार्य के लिए पुराने मुगलकालीन कागजात खंगाल रहे थे उसी समय उनको प्राचीन मुगलकालीन सरकारी कागजातों के साथ फारसी लिपि में लिथो प्रेस द्वारा प्रकाशित,बाबर का एक शाही फरमान प्राप्त हुआ जिसपर शाही मुहर भी लगी हुई थी। ये फरमान अयोध्या में स्थित श्री राम मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने के सन्दर्भ में शाही अधिकारियों को जारी  किया गया था । यह पत्र माडर्न रिव्यू के ६ जुलाई सन १९२४ के "श्री राम की अयोध्या" धारावाहिक में भी छपा था. उस फरमान का हिंदी अनुबाद निम्नवत है । 
"शहंशाहे हिंद मालिकूल जहाँ बाबर के हुक्म से हजरत जलालशाह (ज्ञात  रहे ये वही जलालशाह है जो पहले अयोध्या के महंत  महात्मा श्यामनन्द जी महाराज का शिष्य बन के अयोध्या में शरण लिया था) के हुक्म के बमुजिव अयोध्या के राम की जन्मभूमि को मिसमार करके उसी जगह पर उसी के मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गयी. बजरिये इस हुक्मनामे के तुमको बतौर इत्तिला के आगाह किया जाता है की हिंदुस्तान के किसी भी गैर सूबे से कोई हिन्दू अयोध्या न जाने पावे जिस शख्श पर यह सुबहा हो की यह अयोध्या जाना चाहता है फ़ौरन गिरफ्तार करके दाखिले जिन्दा कर दिया जाए. हुक्म सख्ती से तमिल हो फर्ज समझकर" ...                                                    (अंत में बाबर की शाही मुहर)
बाबर के उपरोक्त हुक्मनामे से स्पष्ट होता है की उस समय की मुग़ल सरकार भी यह समझती  थी की श्री राम जन्मभूमि को तोड़ कर उस जगह पर मस्जिद खड़ा कर देना आसान काम  नहीं है। इसका प्रभाव सारे हिंदुस्थान पर पड़ेगा। धार्मिक भावनाए आहत होने से हिंदुओं का परे देश मे ध्रुवीकरण हो जाएगा उस स्थिति मे दिल्ली का सिंहासन बचना मुश्किल होगा अतः अयोध्या को  अन्य प्रांतो से अलग थलग करने का हुक्मनामा जारी किया गया॥

चूकी उपलब्ध साक्ष्यों की परिधि के इर्दगिर्द ही ये विश्लेषण है अतः पूरे दावे के साथ मैं ये नहीं कह सकता की बाबर के इस फरमान की प्रतिक्रिया या असर  क्या रहा?? क्यूकी कोई ठोस लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है मगर जैसा पहले भी मैं लिख चूका हूँ ,कनिंघम के लखनऊ गजेटियर में प्रकाशित रिपोर्ट यह बतलाती है की युद्ध करते हुए जब एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दू जब मारे  जा चुके थे और हिन्दुओं की लाशों का ढेर लग गया तब जा के  मीरबाँकी खां ने तोप के द्वारा रामजन्मभूमि मंदिर गिरवाया। कनिंघम के पास इस रिपोर्ट के क्या साक्ष्य थे ये तो कनिंघम के साथ ही चले गए मगर इस रिपोर्ट से एक बात स्थापित हुई की वहां मंदिर गिराने से पहले हिन्दुओं का प्रतिरोध हुआ था और उनकी बड़े स्तर पर हत्या भी हुई थी। 
इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी।  "
ये तो हुए अन्य  इतिहासकारों के प्रसंग  अब आते हैं बाबरनामा के एक प्रसंग पर जिसे पढ़कर ये बात तो स्थापित हो जाती है की बाबर के आदेश से जन्मभूमि का मंदिर ध्वंस हुआ था और उसी जगह पर विवादित ढांचा(मस्जिद) बनवाई गयी .. 
बाबर के शब्दों में .. " हजरत कजल अब्बास मूसा आशिकन कलंदर साहब ( ज्ञात  रहे ये वही हजरत कजल अब्बास मूसा हैं जो जलालशाह के पहले अयोध्या के महंत  महात्मा श्यामनन्द जी महाराज का शिष्य बन के अयोध्या में शरण लिए) की इजाजत से जन्मभूमि मंदिर को मिसमार करके मैंने उसी के मसाले से उसी जगह पर यह मस्जिद तामीर की सन्दर्भ: बाबर द्वारा लिखित  बाबरनामा पृष्ठ १७३)


इस प्रकार बाबर,वजीर मीरबाँकी खा के अत्याचारों कूटनीति और महात्माश्यामनन्द जी महाराज  के दो आस्तीन में छुरा भोंकने वाले शिष्यों  हजरत कजल अब्बास मूसा और जलालशाह के धोखेबाजी के फलस्वरूप रामजन्मभूमि का मंदिर गिराया गया और एक विवादित ढांचें (जिसे कुछ भाई मस्जिद का नाम देते हैं) का निर्माण हुआ ॥ 

लेख के अगले भाग मे मै उन हिन्दू वीर राजाओं का क्रमिक वर्णन दूंगा जिन्होने  जन्मभूमि के रक्षार्थ अनेकों युद्ध किए और जन्मभूमि को मुक्त करने का प्रयास किया॥ 


जय श्री राम