Saturday, December 6, 2014

शक्तिशाली-पड़ोसी-चीन 2

अब आते है भारत-तिब्बत और चीन के एतिहासिक संबंधो पर

1. तिब्बत मध्य एशिया के पूर्व में और चीन के दक्षिण में स्थित की उच्च पर्वत श्रेणियों, कुनलुन एवं हिमालय के उत्तर-मध्य-स्थित 16000 फुट की ऊँचाई पर स्थित है| इस तिब्बत राज्य का ऐतिहासिक वृतांत लगभग 7 वी शताब्दी से मिलता है। 8वीं शताब्दी से ही यहाँ बौद्ध-धर्म का प्रचार प्रांरभ हुआ। 1013 ई0 में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। 1042 ई0 में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुँचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल 1207 ई0 में प्रांरभ हुआ।
2. १६४२ में पांचवें दलाई लामा गवांग लोजांग ग्यात्सो ने तिब्बत पर आध्यात्मिक व लौकिक दोनों दृष्टियों से अधिकार कर लिया। उन्होंने तिब्बती सरकार की वर्तमान शासन प्रणाली की स्थापना की जिसे गांदेन फोड्रांग'' कहा जाता है। समूचे तिब्बत के शासक बनने के बाद उन्होंने चीन की ओर रूख किया और चीन से मांग की, कि वह उनकी संप्रभुता को मान्यता दे।
 
3. मिंग बादशाह ने दलाई लामा को एक स्वतंत्र और बराबरी का शासक स्वीकार किया। इस बात के प्रमाण हैं कि वह दलाई लामा से मिलने के लिए अपनी राजधानी से बाहर आए और उन्होंने शहर को घेरने वाली दीवार के ऊपर से एक ढाल वाले मार्ग का निर्माण किया ताकि दलाई लामा बिना प्रवेश द्वार तक गये सीधे पीकिंग में प्रवेश कर सकें।
4. चीन के शासक ने दलाई लामा को न केवल एक स्वतंत्र शासक के रूप में स्वीकार किया, बल्कि उन्हें पृथ्वी पर एक देवता के रूप में भी माना। इसके बदले में दलाई लामा ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मंगोलों को इस बात के लिए राजी किया कि वह चीन पर मिंग-शासक का आधिपत्य स्वीकार करे। इसके परिणाम स्वरूप पुरोहित-यजमान संबंध का विकास हुआ| जिसने तिब्बत, चीन व मंगोलिया के संबंधों में एक नये वातावरण का निर्माण किया। एक और महत्वपूर्ण घटना थी पांचवे दलाई लामा का यह बयान की उनके निजी शिक्षकों में से एक, पहले पंचेन लामा की श्रेणी को जारी रखा जाये।
5. मंगोलों का अंत 1720 ई0 में चीन के माँचू प्रशासन द्वारा हुआ। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहाँ भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, पर 1788-1792 ई0 के गुरखों के युद्ध के कारण उनके पैर यहाँ नहीं जम सके।
6. परिणाम स्वरूप 19 वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर रखी। अंग्रेंजों ने अपनी व्यापारिक चौकियों की स्थापना के लिये कई असफल प्रयत्न किया। तिब्बत ने दक्शिण मे नेपाल से भी कई बार युद्ध करना पडा और नेपाल के गोरखाओ ने तिब्बत को हमेसा हराया। नेपाल और तिब्बत कि सन्धि के मुताबिक तिब्बत ने हर साल नेपाल को ५००० नेपाली-रुपये हरजाना भरना पडा। इससे परेशान होकर तिब्बत ने नेपाल से युद्ध करने के लिये चीन से मदद मागी| चीन के मदद से तिब्बत ने नेपाल से छुट्कारा तो पा लिया लेकिन चीन ने ही 1906-7 ई0 में तिब्बत पर अपना अधिकार जमा लिया और याटुंग ग्याड्से एवं गरटोक में अपनी चौकियाँ स्थापित की| लेकिन चीन तिब्बत को 1912 ई0 तब ही अधीन रख सका| चीन में मांचू-शासन अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को पुन: स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया।
7. सन् 1913-14 में चीन-भारत(तत्कालीन इंडो-ब्रिटिस सरकार) एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई| जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी भागों में विभाजित कर दिया गया: (पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के सिंघाई एवं सिकांग प्रांत हैं। इसे (Inner Tibet) अंतार्वर्ती तिब्बत कहा गया।(2) पश्चिमी भाग जो बौद्ध धमानुयाई शासक लामा के हाथ में रहा। इसे बाह्य तिब्बत (Outer Tibet) कहा गया)
सन् 1933 ई0 में 13 वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद से बाह्य तिब्बत भी धीरे-धीरे चीनी धेरे में आने लगा। चीनी भूमि पर लालित-पालित 14 वें दलाई लामा ने 1940 ई0 में शासन भार सँभाला।
8. 1950 ई0 में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण-लामा के चुनाव में दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई एवं चीन को तिब्बत पर आक्रमण करने का बहाना मिल गया। और चीन ने तिब्बत पर चढ़ाई शुरू कर दी| ९ सितम्बर १९५१ को हजारो चीनी सेनिको ने तिब्बत की राजधानी "ल्हासा" विजय मार्च किया और एक संधि के तहत तिब्बत को साम्यवादी चीन के अधीन राज्य घोषित कर दिया गया।
अथार्त ९ सितम्बर १९५१ को चीन ने संगीनों के बल पर तिब्बत पर अधिकार जमा लिया तब भारतवर्ष को आजाद हुए ४ वर्ष हो चुके थे लेकिन भारत-सरकार सम्पूर्ण मामले में केवल मूक दर्शक बनी रही|

9. इसके बाद चीन द्वारा तिब्बत में भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी| जो क्रमश: 1956 एवं 1959 ई0 में जोरों से भड़क उठी। परतुं बल प्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। अत्याचारों, हत्याओं आदि से किसी प्रकार बचकर दलाई-लामा नेपाल के रास्ते होकर भारत पहुचे जो वर्तमान में भी भारतवर्ष की ही शरण में है और अन्तराष्ट्रीय मंचो से तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज उठाते रहते है| इसके पश्चात भी भारतवर्ष की सरकार तिब्बत पर चीन के अधिपत्य को मूक सहमति प्रदान कर कमजोर कूटनीति व विदेश-नीति का प्रदर्शन करती आ रही है|
    

शक्तिशाली-पड़ोसी-चीन

चीन भारतवर्ष का एक ताकतवर पड़ोसी ही नही प्राचीन काल से सांस्कृतिक सम्बन्ध रखने वाला देश भी है इस देख की संस्कृति भी भारतवर्ष के सामान ही अति-प्राचीनकाल से सम्बन्ध रखती है| तिब्बत को जितने के बाद से ही चीन व भारतवर्ष की सीमाए आपसे में लम्बी दूरी के साथ मिलती है जिसके चलते दोनों देशो के बीच गहरे सीमा-विवाद भी है| दोनों देश १९६२ में चीन द्वारा हमले के कारण युद्ध भी लड़ चुके है|
इस सूत्र का उद्देश चीन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी पाना और उस पर चीन का सही विश्लेषण करना है| आज हम चीन के इतने करीबी पड़ोसी होने और उससे एक युद्ध लड़ने बाद भी इतना अधिक नही जानते है जितना सात समुन्द्र पार अमेरिका व ब्रिटेन के बारे जानते है या फिर अरब देशो के बारे में|
अब विश्व-परिद्रश्य बदल चुका है चीन महाशक्ति बनने जा रहा है लेकिन उसकी नजदिकिया हमारे परम्परागत दुश्मन पाकिस्तान से बढ़ना भी हमारे देश के लिए भावी ही नही वर्त्तमान में भी खतरा बनती जा रही है|

किसी भी देश के विस्तार के पिच्छे वहा की आदिकाल से स्थापित जातिगत व साप्रदायिक संस्कृति विशेषरूप से उत्तरदायी होती है| उनकी संख्या व परम्पराए उसके (उस देश के) विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाती है|
यहाँ सबसे पहले चीन के निवासियों की जातियों व सम्प्रदायों के बारे में बताना चाहूँगा:-
हान-जाति:-
चीन में हान-जाति की जनसंख्या चीन-देश की कुल जनसंख्या का लगभग 92 प्रतिशत है और अन्य अल्पसंख्यक जातियों की कुल जनसंख्या देश का मात्र 8 प्रतिशत है। हानजाति की तुलना में अन्य 55 जातियों की जनसंख्या कम होने के कारण उन्हें अल्पसंख्यक-जातियाँ कहलाती है। अल्पसंख्यक-जातियाँ मुख्यतौर पर उत्तर-पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी, तथा उत्तर-पूर्व-चीन में रहती हैं।
इस ८% में निम्नलिखित ५५ जातिया आती है ये ५५ जातिया बोध-धम्म, इस्लाम, ईसाई व अन्य बोध मिश्रित-स्थानीय धम्म (रिलीजन्स) को मानती है|
१. मंगोल जाति, २.ह्वी जाति, ३.तिब्बती जाति,४.उइगुर जाति, ५.म्याओ जाति, ६.यी जाति, ७.ज्वांग जाति, ९.बुयी जाति, १०.कोरियाई जाति , ११.मान जाति, १२.तोंग जाति, १३.याओ जाति, १४.पाई जाति, १५.थुचा जाति, १६.हानि जाति, १७.कज़ाख जाति, १८.ताई जाति, १९.ली जाति, २०.सुली जाति, २१.वा जाति, २२.श जाति, २३.गोशान जाति, २४.लाहू जाति, २५.श्वी जाति, २५.तुंग श्यांग जाति, २६.नाशी जाति, २७.चिंगफ जाति, २८.अर्कज़ जाति, २९.थु जाति, दावर ३०.जाति, मुलाओ जाति, ३१.छ्यांग जाति, ३२.बुलांग जाति, ३३.सारा जाति, ३४.माओनान जाति, ३५.गलाओ जाति, ३६.शिबो जाति, ३७.आछांग जाति, ३८.फुमि जाति, ३९.ताज़िक जाति, ४०.नू जाति, ४१.उज़बेक जाति, ४२.रूसी जाति, ४३.अवनक जाति, ४४.दआंग जाति, ४५.पाओआन जाति, ४६.य्वुगु जाति, ४७.चिंग जाति, ४८.तातार जाति, तु४९.लुंग जाति, ५०.अलुनछुंग जाति, ५१.हच जाति, ५२.मनबा जाति, ५३.लोबा जाति और ५५.चिनो जाति हैं|
इसके अतिरिक्त चीन के अंदरुनी व तिब्बत के पहाडी उच्चे पहाडी क्षेत्रो में कुच्छ ऐसे आदि-कालीन आदिम-जातिये समूह भी पाए जाते है जिनकी आधिकारिकत्तोर पर पहचान नही है लेकिन इनकी संख्या नही के बराबर है|
मान-जाति

चीन में हान-जाति की जनसंख्या १ अरब २० लाख के करीब है| इस जाति के बाद चीन की सबसे प्राचीन सशक्त जाति मान-जाति है:-
मान-जाति का चीन की बहुसंख्यक जाति हान-जाति के ५००० वर्ष पुराने इतिहास की अपेक्षा इस मान-जाति का चीन इतिहास भी 2000 वर्ष पुराना है| उत्तर पूर्व चीन के ल्याओनिन प्रांत में मान-जाति की जनसंख्या सब से ज्यादा है। मान-जाति के लोग मान-भाषा का प्रयोग करते थे लेकिन वर्त्तमान में जाति के लोग चीन सम्पूर्ण में फैले हुए हैं हान-जाति के साथ रहने और घनिष्ठ संपर्क होने के कारण अब मान-जाति के लोग आमतौर पर हान-भाषा का प्रयोग करते हैं, सिर्फ़ दूरदराज कुछ गांवों में कुछ वृद्ध लोग मान-भाषा बोलते हैं।
वर्तमान में मान-जाति की कुल जनसंख्या का सही पता लगाना असंभव है लेकिन एक अनुमान के अनुसार इस जाति की जनसंख्या ५० लाख से अधिक है| प्राचीनकाल मान-जाति के लोग उत्तर पूर्वी चीन के छांगपाइ पर्वत के उत्तर में स्थित हेलुंगच्यांग नदी के मध्य व निचले भाग तथा उसुरी नदी के विशाल घाटी क्षेत्र में रहते थे। 12वीं शताब्दी में तत्कालीन न्युजन नामक मान-जाति के लोगों ने चिन राजवंश की स्थापना की। वर्ष 1583 में नुरहाछी ने न्युजन के विभिन्न कबीलाओं का एकीकरण किया और आठ लीग वाली शासन व्यवस्था की स्थापना की और मान भाषा का सृजन किया।

यह जाति भी हान-जाति की भाति बहुदेववादी-धर्म में विश्वास करती है व दुसरे धर्मो का आदर भी करती है| चीन के इतिहास के अनुसार मान-जाति के लोगों ने चीन के एकिकरण, प्रादेशिक भूमि के विस्तार, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास के लिए भारी योगदान किया था।
 
ज्वांग-जाति

चीन की हान-जाति के पश्चात ज्वांग-जाति जनसंख्या के आधार पर दूसरी बड़ी जाति है| अथार्त अल्पसंख्यक जातियों में ज्वांग-जाति की जनसंख्या सब से ज्यादा है, ज्वांग जाति के लोग मुख्यतौर पर दक्षिणी चीन के क्वांगशी ज्वांग-जातीय स्वायत्त-प्रदेश में रहते हैं।
ज्वांग-जाति की भाषा हान-तिब्बती भाषा श्रेणी में शामिल होती है। चीन के दक्षिण भाग में बसी ज्वांग-जाति का इतिहास बहुत पुराना है। दसियों हज़ार वर्ष पहले ज्वांगग-जाति के पूर्वज दक्षिणी चीन में रहते थे।
वर्ष 1958 में क्वांगशी ज्वांग-जातीय-स्वायत्त प्रदेश की स्थापना हुई। ज्वांग-जाति कृषि प्रधान जाति है, जो मुख्यतः धान और मकई का उत्पादन करती है।
ज्वांग जाति के लोग गीत गाने के शौकिन होते हैं, इसलिए ज्वांग-जातीय क्षेत्र को गीतों का सागर माना जाता है। ज्वांग-जाति की परम्परागत शिल्पकला कृति ज्वांग चिन यानी ज्वांग जाति का रेशमी बुनाई की चीजें बहुत सुन्दर व चमकीली होती हैं।
प्राचीन काल में ज्वांग-जाति प्रकृति व बहुदेवता में आस्था रखती थी। थांग और सुंग राजवंशों के बाद बौद्ध-धर्म और ताओ-धर्म क्रमशः ज्वांग-जातीय क्षेत्र में प्रचलित हो गए,
आधूनिक समय में इसाई और केथोलिक आदि पश्चिमी धर्म भी ज्वाग-जातीय क्षेत्र में स्वीकृत हुए; लेकिन उन का प्रभाव बहुत ही कम पाया जाता है।
 
म्याओ जाति

चीन में म्याओ-जाति की जनसंख्या लगभग 89 लाख से अधिक है, जो मुख्यतौर पर चीन के क्वोचो, युन्नान, सछ्वान, क्वांग शी, हुनान, हुपेई और क्वांगतुंग आदि प्रांतों में निवास करती है। चीन के यह प्रांत भारतवर्ष के पूर्व के पड़ोसी देश मानम्यार(बर्मा), वियतनाम, लोअस के उत्तर-पूर्व में स्थित है|

म्याओ-जाति अपनी म्याओ-भाषा का प्रयोग करती है, म्याओ-भाषा; हान-तिब्बती भाषा श्रेणी का एक अंग है। अतीत में म्याओ-जाति की अपनी एकीकृत लिपी नहीं थी। वर्ष 1956 में म्याओ-जाति ने अपनी चार बोलियों के आधार पर लाटिन अक्षरों की अपनी लिपी बनायी, तभी से इस जाति की अपनी लिपी बन गई है।
म्याओ-जाति चीन में पुराने इतिहास वाली जातियों में से एक है। चार हज़ार वर्ष पूर्व के ऐतिहासिक ग्रंथों में इस जाति का उल्लेख उपलब्ध है। किवदंती में चीनी राष्ट्र के पूर्वज ह्वांगती और यानती के साथ कभी लड़ने और कभी सहयोग करने वाले छीयो नामक कबीलाई राजा म्याओ-जाति के पूर्वक माना जाता है।
युद्ध, प्राकृतिक विपत्ति, रोग आदि के कारण म्याओ-जाति निरंतर अपने जन्म-स्थल से स्थानांतरित हुआ करती थी, इस से म्याओ-जाति के लोग व्यापक क्षेत्रों में बस गए और भिन्न-भिन्न स्थानों की म्याओ-जाति की शाखाओं में भिन्न-भिन्न बोलियां, वस्त्र तथा रीति-रिवाज़ उत्पन्न हुई हैं।
विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई म्याओ-जाति अपने-अपने विशेष नाम से भी संबोधित होती है। उदाहरण के लिए नाना प्रकार के वस्त्र पहनने की वजह से उन्हें बड़ी-स्कर्ट वाली म्याओ-जाति, छोटी-स्कर्ट वाली म्याओ-जाति, लाल-रंग वाली म्याओ -जाति और काला-रंग वाली म्याओ-जाति संबोधित किया जाता है।
म्याओ-जाति मुख्यतौर पर आदि-धर्म (अपने आदिवासी पूर्वजो की परम्परागत सांस्कृतिक धर्म) में विश्वास करती है और धान, मकई, तिलहन, और चीनी जड़ी-बुटियों की खेती करती है।
 
मंगोल जाति
मंगोल-जाति की जनसंख्या 58 लाख है मंगोल-जाति मंगोली-भाषा का प्रयोग करती है, यह भाषा-आर्ताई भाषा व्यवस्था का एक अंग है| मंगोल-जाति मुख्यतौर पर चीन के भीतरी मंगोलिया-स्वायत्त-प्रदेश और शिन्च्यांग उईगुर-स्यावात्त-प्रदेश, छिंगहाई, कानसू, हेलुंगच्यांग, चीलिन, तथा ल्याओनिंग आदि प्रांतों के मंगोलिया-जातीय-स्वायत्त प्रिफैक्चरों व कांऊटियों में बसी है। यह क्षेत्र चीन के उत्तर में स्थित है| इस क्षेत्र का अधिकाँश भाग "गोबी के रेगिस्थान" में आता है|
मंगोल का नाम सब से पहले थांग राजवंश में अस्तित्व में आया, उसी समय यह सिर्फ़ मंगोल के विभिन्न कबीलों में से एक का नाम था। मंगोल कबीले का जन्म स्थल अर्गुना नदी के पूर्वी भाग में था और धीरे-धीरे पश्चिमी ओर आ बसा। विभिन्न कबीलों के बीच श्रम शक्तियों, पशुओं तथा संपत्ति की छिनाझपटी के लिए लड़ाई हुआ करती थी।
वर्ष 1206 में तामूचन को मंगोल का राजा खां बनाया गया, जो चंगेजखान के नाम से विश्वविख्यात रहा, उस ने मंगोल राज्य की स्थापना की। इसतरह उत्तर चीन में पहली बार एक शक्तिशाली, स्थिर व विकसित जाति--मंगोल जाति पैदा हुई। बाद में चंगेज खान ने मंगोल के विभिन्न कबीलों, यहां तक की चीन का एकिकरण किया और उस के पोता खुबले खान ने चीन के य्वान-राजवंश की स्थापना की।
चीन की मंगोल-जाति आमतौर पर लामा-धर्म में विश्वास करती है। इस मंगोल-जाति ने चीन के राजनीतिक, सैनिक, आर्थिक, वैज्ञानिक व तकनीक विकास, खगोल शास्त्र, कला साहित्य व सांसकृतिक, चिकित्सक प्रगति में भारी योगदान किया है।
 
यी जाति
यी-जाति की जनसंख्या 77 लाख से अधिक है, यह जाति भी मुख्यतः चीन के युन्नान, सछ्वान, क्वोचो और क्वांगशी आदि चार प्रांतों (भारतवर्ष के पूर्वी-पड़ोसी मानम्यार{बर्मा}, लाओस, वियतनाम के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में स्थित चीनी प्रान्तों) में बसी है। दो हज़ार वर्ष पहले उत्तर-चीन से आई तीछ्यांग-जाति के लोगों और दक्षिण में रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ विलय हुआ, जिससे एक नयी जाति यी-जाति उत्पन्न हुई।

यी-जाति अपनी भाषी बोलती है। यी-भाषा हान-तिब्बती भाषा व्यवस्था का ही एक अंग है। हान-जाति के लोगों के साथ ज्यादा संपर्क करने वाले यी-जातीय लोगों को हान-भाषा भी आती है। यी-जाति चीन में जनसंख्या ज्यादा, आबाद क्षेत्रों के अधिक और लम्बा पुराना इतिहास होने वाली जातियों में से एक है।

यी-जाति की एक विशेषता है कि लम्बे समय तक यी-जाति में दास व्यवस्था लागू होती थी। वर्ष 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद यी-जातीय क्षेत्र में लोकतांत्रिक सुधार किया गया और तभी से वहां की दास व्यवस्था को समाप्त किया गया।
पुराने समय में यी-जाति बहुदेव धर्म को मानती थी और छिंग-राजवंश में ताओ-धर्म यी-जाति में लोकप्रिय हुआ। 19वीं शताब्दी के अंत में कैथोलिक व क्रिश्चिन धर्म भी यी जाति में प्रवेश कर गए, लेकिन इनके अनुयायी बहुत ही कम पाए जाते हैं।
 
ह्वी जाति

ह्वी-जाति की जनसंख्या 98 लाख से अधिक है, जो मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी (जिनजियांग) चीन के "निंगशा" "ह्वी-जातीय स्वायत्त प्रदेश" में रहती है। चीन के अन्य क्षेत्रों में भी ह्वी-जाति के लोग बसे हुए हैं। ह्वी-जाति के लोग चीन के सभी नगरीय क्षेत्रो में फैले हुए हैं और चीन में सब से अधिक क्षेत्रों में फैली हुई अल्पसंख्यक जाति मानी जाती है। लम्बे अरसे में हान-जाति के साथ रहने के कारण ह्वी-जाति मुख्य तौर पर हान-भाषा का प्रयोग करती है और अन्य अल्पसंख्यक जाति बहुल क्षेत्रों में रहने वाले ह्वी-जाति के लोग उन्ही अल्पसंख्यक जातियों की भाषा भी बोलते हैं|

इस जाति के लोग इस्लाम के अनुयायी होने के कारण कुछ लोगों को अरबी व फ़ारसी भाषा भी आती हैं। ह्वी-जाति का इतिहास 7वीं शताब्दी से शुरू हुआ। उसी समय अरबी व फ़ारसी व्यपारी चीन में आये, वे मुख्यतः दक्षिण-पूर्वी चीन के क्वांगचो और छ्वानचो आदि क्षेत्रों में बसे थे। कोई सैकड़ों वर्षों के विकास के बाद ह्वी-जाति की उत्पति हुई| इस के अलावा 13वीं शताब्दी के शुरू में युद्ध की विपत्ति से बचने के लिए मध्य-एशिया, फ़ारस तथा अरब क्षेत्र के बहुत से लोग भाग कर चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग में आ बसे। ये लोग विवाह और धर्म के माध्यम से चीन के हान-जाति, उइगुर-जाति तथा मंगोल-जाति के लोगों के साथ विलय हुए| धीरे धीरे एक नयी जाति--ह्वी जाति के रूप में विकसित हो गए।

ह्वी-जाति के लोग इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं, उन्होंने शहरों, कस्बों, यहां तक गांवों में भी मस्जिदों की स्थापना की और मस्जिद के आसपास रहने वाली यह विशेष आबादी बन गयी। ह्वी-जाति को खाने-पीने की अपनी विशेष आदत होती है। ह्वी-जातीय रेस्टरां व खाद्य-पदार्थ दुकानों के दरवाज़ों पर अपनी जाति के विशेष चिह्न मुस्लिम दुकान जैसा अक्षर या चित्र अंकित होता है, इन रेस्टरां और दुकान मुख्यतौर पर ह्वी-जाति के लोगोंं को सेवा प्रदान करते हैं। चीन में ह्वी-जाति का उच्च आर्थिक व इस्लामिक-सांस्कृतिक स्तर है|
 
 
 
 
 

Friday, September 5, 2014

कितना कष्टकारी है इजराइल को इस स्थिति में देखना ...................


दोनों में बड़ा साम्य है
एक बहुत बड़ा सम्बन्ध है
आर्यावर्त अथवा अखंड भारत की पश्चिमी सीमा यानि मध्य धरातल सागर अंग्रेजी में "मेडी टेरैनियन सी" पर स्थित जहाँ भारत के शौर्य के चिन्ह धरती में अन्दर दबे हैं, आर्य सभ्यता की आखिरी निशानी, इजराइल यहूदियों का छोटा सा संरक्षण स्थल बनाकर सर्वत्र परम चांडालों से घिरा अपने अस्तित्व की रक्षा कर रहा है ..
ज्युज़ यानि यहूदी कौन हैं ? JEWS शब्द संस्कृत "यदु" का रोमनीकरण है यहूदी वोही बिछड़े यदु या यदुवंशी हैं जिनका सम्बन्ध आर्य सम्राटों से भी है - एवं महान आर्य नायक कृष्ण से भी ..जिनके पूजा स्थल का नाम है -- "ईश्वरालयम " यानि जेरुसलम . (जिसका गहरा रहस्य है *) * भविष्य ब्लॉग
उसी आर्य साम्राज्य का केन्द्रक एवं पूर्वी सिरा अपने राजनैतिक कम, सांस्कृतिक अस्तित्व की अन्छेडी लड़ाई लड़ रहा है
क्या विडंबना दोनों को एक दुसरे के बारे में नहीं मालूम ...
दोनों का शत्रु का एक है
दोनों की कमजोरी लगभग एक
दोनों की स्थिति एक -
पर दोनों की तैयारी भिन्न है
दोनों के तेवर भिन्न
उसने अपनी कमियां उखाड़ फेंकनी शुरू कर दीं
हमने अभी शुरू भी नहीं किया
उसी कमियों पर पल रहे हैं, जिन्होंने हमारा विनाश कर दिया
शास्त्रों के स्वर सभ्यताएँ नहीं बचाते पौरुष भरे शस्त्र बचाते हैं
वो पौरुष नहीं हैं कहीं ..........
स्त्रियों में शक्ति खोजना हमने जबसे प्रारंभ किया ...... तबसे हम हार एवं विपत्ति के अधिकारी हो गए !
उस महान साम्राज्य के दो नष्टप्राय भंगुर सिरे बचे हैं ....... आखिरी चिन्ह के रूप में
सही कहा है उस औपनिवेशिक ने "इतिहास विजेता ही लिखता है"
जो अपना इतिहास नहीं जानता वो जीवित नहीं है ...................

Friday, August 1, 2014

यह योद्धा यदि दुर्योधन के साथ मिल जाता तो महाभारत युद्ध का परिणाम ही कुछ और होता…पर




हिन्दुओं के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत में शूरवीरों और योद्धाओं की कमी नहीं है. हर कोई एक से बढ़कर एक है. इस काव्य ग्रंथ में केंद्रबिंदु की भूमिका में रहे भगवान श्रीकृष्ण सभी योद्धाओं के पराक्रम से सुपरिचित थे. पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले श्रीकृष्ण सभी योद्धाओं की युद्ध क्षमता को आंकना चाहते थे इसलिए उन्होंने सभी से एक ही सवाल पूछा. “अकेले अपने दम पर महाभारत युद्ध को कितने दिन में समाप्त किया जा सकता है?” पांडु पुत्र भीम ने जवाब दिया कि वह 20 दिन में इस युद्ध को समाप्त कर सकते हैं. वहीं उनके गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि युद्ध को समाप्त करने में उन्हें 25 दिन लगेंगे. अंगराज कर्ण ने इस युद्ध को खत्म करने के लिए 24 दिन पर्याप्त बताया जबकि इन्हीं के प्रतिद्वंदी अर्जुन ने 28 दिन बताया.




लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने जब यही सवाल घटोत्कच के पुत्र और बलशाली भीम के पौत्र बर्बरीक से पूछा तो जवाब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण सन्न रह गए. बर्बरीक ने कहा कि वह महज कुछ ही पलों में युद्ध की दशा और दिशा तय कर सकते हैं. बर्बरीक के बारे में कहा जाता है कि वह बाल्यकाल से ही बहुत वीर और महान यौद्धा थे. उन्होंने युद्ध कला अपनी मां मौरवी से सीखी थी. यही नहीं भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्होंने तीन अमोघ बाण भी प्राप्त किए.

कहा जाता है कि जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ उस दौरान बर्बरीक में इस युद्ध में भाग लेने की बहुत ही ज्यादा व्याकुलता थी ताकि वह अपनी शक्ति को प्रदर्शित कर सकें. उन्होंने अपनी माता मौरवी के समक्ष युद्ध में जाने की इच्छा प्रकट की. माता मौरवी ने इजाजत दे दी. फिर बर्बरीक ने अपनी माता से पूछा कि वह युद्ध में किसका साथ दें? माता ने सोचा कि कौरवों के साथ तो उनकी विशाल सेना है, जिसमें भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, कृपाचार्य, अंगराज कर्ण जैसे महारथी हैं. इनके सामने पांडव अवश्य ही हार जाएंगे. ऐसा सोच माता मौरवी ने अपने पुत्र बर्बरीक से कहा कि “जो हार रहा हो उसी का सहारा बनना पुत्र”. वैसे कहा यह भी जाता है कि गुरु की शिक्षा लेने के दौरान बर्बरीक ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने गुरु को वचन दिया था कि वह कभी व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए युद्ध नहीं करेंगे. साथ ही युद्ध में जो पक्ष कमजोर होगा उसके साथ खड़ा होंगे.


अपनी माता और गुरु का वचन लिए जब बर्बरीक अपने घोड़े, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए तभी बीच में वासुदेव कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक को रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उड़ाई कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आए हैं. ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकस में ही आएगा.


भगवान श्रीकृष्ण बर्बरीक के युद्ध कौशल को देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने उन्हें चुनौती दी. उन्होंने बर्बरीक से कहा कि पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनों खड़े थे. बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया. तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के ईर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, तीर उनके पैर को भेदते हुए वहीं पर गड़ गया.



भगवान श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध का अंत जानते थे, साथ ही वह बर्बरीक के मन को भी समझ चुके थे. इसलिए उन्होंने सोचा कि अगर कौरवों को हारता देख बर्बरीक कौरवों का साथ देने लगा तो पांडवों की हार निश्चित है. तभी ब्राह्मण रूपी वेश में श्रीकृष्ण ने चलाकी से बालक बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वह उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होंगे तो अवश्य ही उनकी मांग पूर्ण करेंगे. कृष्ण ने बर्बरीक से दान में शीश मांगा, बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए अचंभित हो गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जताई. बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तविक रूप में दर्शन की इच्छा व्यक्त की. तब श्रीकृष्ण अपने वास्तविक रूप में आए. कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की. अर्जुन, संजय, पवन पुत्र हनुमान के अलावा बर्बरीक चौथे व्यक्ति थे जिनकी अभिलाषाओं को श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर पूर्ण किया.


भगवान श्रीकृष्ण को अपना शीश दान भेंट करने से पूर्व बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक महाभारत युद्ध देखना चाहते हैं. श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली. फाल्गुन मास की द्वादशी को बर्बरीक ने अपने आराध्य देवी-देवताओं की वंदना की और अपनी माता का नमन किया. फिर कमर से कटार खींचकर एक ही वार में अपने शीश को धड़ से अलग कर भगवान श्रीकृष्ण को दान में दे दिया. भगवान ने उस शीश को अमृत से सींचकर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित कर दिया, ताकि बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकें.

कृष्ण के मित्र सुदामा एक राक्षस थे जिनका वध भगवान शिव ने किया

गोकुलवासी श्री कृष्ण के मित्र ‘सुदामा’ अपनी मित्रता की वजह से शास्त्रों में जाने जाते हैं. शांत व सरल स्वभाव, कृष्ण के हृदय में अपनी एक अलग ही छवि बनाने वाले सुदामा को दुनिया मित्रता के प्रतिरूप के रूप में याद करती है, लेकिन इनका एक रूप ऐसा भी था जिसकी वजह से भगवान शिव ने उनका वध किया था. इस तथ्य पर विश्वास करना कठिन तो है परंतु यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो यह सच उभर कर सामने आता है. तो ऐसा क्या किया था सुदामा ने जिस कारण भगवान शिव को विवश होकर उनका वध तक करना पड़ा?



सुदामा का पुनर्जन्म हुआ राक्षस शंखचूण के रूप में
स्वर्ग के विशेष भाग गोलोक में सुदामा और विराजा निवास करते थे. विराजा को कृष्ण से प्रेम था किंतु सुदामा स्वयं विराजा को प्रेम करने लगे. एक बार जब विराजा और कृष्ण प्रेम में लीन थे तब स्वयं राधा जी वहां प्रकट हो गईं और उन्होंने विराजा को गोलोक से पृथ्वी पर निवास करने का श्राप दिया. इसके बाद किसी कारणवश राधा जी ने सुदामा को भी श्राप दे दिया जिससे उन्हें गोलोक से पृथ्वी पर आना पड़ा. मृत्यु के पश्चात सुदामा का जन्म राक्षसराज दम्भ के यहां शंखचूण के रूप में हुआ तथा विराजा का जन्म धर्मध्वज के यहां तुलसी के रूप में हुआ. 
मां तुलसी से विवाह के पश्चात शंखचूण उनके साथ अपनी राजधानी वापस लौट आए. कहा जाता है कि शंखचूण को भगवान ब्रह्मा का वरदान प्राप्त था और उन्होंने शंखचूण की रक्षा के लिए उन्हें एक कवच दिया था और साथ ही यह भी कहा था कि जब तक तुलसी तुम पर विश्वास करेंगी तब तक तुम्हें कोई जीत नहीं पाएगा. और इसी कारण शंखचूण धीरे-धीरे कई युद्ध जीतते हुए तीनों लोकों के स्वामी बन गए.
 
शंखचूण के क्रूर अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान ब्रह्मा से सुझाव की प्रार्थना की. ब्रह्मा जी द्वारा भगवान विष्णु से सलाह लेने की बात कहे जाने पर देवतागण विष्णु के पास गए. विष्णु ने उन्हें शिव जी से सलाह लेने को कहा. देवताओं की परेशानी को समझते हुए भगवान शिव ने उन्हें शंखचूण को मार कर उसके बुरे कर्मों से मुक्ति दिलाने का वचन दिया. लेकिन इससे पहले भगवान शिव ने शंखचूण को शांतिपूर्वक देवताओं को उनका राज्य वापस सौंपने का प्रस्ताव रखा परंतु हिंसावादी शंखचूण ने शिव को ही युद्ध लड़ने के लिए उत्तेजित किया.
 शंखचूण यानि कि सुदामा के पुनर्जन्म के रूप से युद्ध के प्रस्ताव के पश्चात भगवान शिव ने अपने पुत्रों कार्तिकेय व गणेश को युद्ध के मैदान में उतारा. इसके बाद भद्रकाली भी विशाल सेना के साथ युद्ध के मैदान में उतरीं. शंखचूण पर भगवान ब्रह्मा के वरदान के कारण उन्हें मारना काफी कठिन था तो अंत में भगवान विष्णु युद्ध के दौरान शंखचूण के सामने प्रकट हुए और उनसे उनका कवच मांगा जो उन्हें ब्रह्माजी ने दिया था. शंखचूण ने तुरंत ही कवच भगवान विष्णु को सौंप दिया.
 


तत्पश्चात मां पार्वती के कहने पर भगवान विष्णु ने कुछ ऐसा किया कि युद्ध का पूरा दृश्य ही बदल गया. वे शंखचूण के कवच को पहनकर उस अवतार में मां तुलसी के समक्ष उपस्थित हुए. उनके रूप को देखकर मां तुलसी उन्हें अपना पति मान बैठीं और बेहद प्रसन्नता से उनका आदर सत्कार किया. जिस कारण मां तुलसी का पातिव्रत्य खंडित हो गया. शंखचूण की शक्ति उनकी पत्नी के पातिव्रत्य पर स्थित थी किंतु इस घटना के पश्चात वह शक्ति निष्प्रभावी हो गई. वरदान की शक्ति के समापन पर भगवान शिव ने शंखचूण का वध कर देवताओं को उसके अत्याचार से मुक्त किया. तो इस प्रकार से सुदामा के पुनर्जन्म के अवतरण शंखचूण का विनाश भगवान शिव के हाथों संपन्न हुआ था.


तुलसी के श्राप से विष्णु बने शालिग्राम


विष्णु द्वारा छले जाने पर तुलसी ने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दिया. तुलसी के रूदन से प्रभावित भगवान विष्णु द्वारा भगवान शिव से मुक्ति की प्रार्थना की गई, तब शिव ने तुलसी को विष्णुप्रिया बनने का वरदान दिया तथा यह कहा कि जहां तुलसी की पूजा होगी वहीं पत्थर रूपी विष्णु की शालिग्राम के रूप में पूजा होगी. इसलिए आज भी तुलसी और शालिग्राम की एक साथ उपस्थिति और पूजा अनिवार्य रूप से प्रचलित है.

विष्णु के पुत्रों को क्यों मार डाला था भगवान शिव ने, जानिए एक पौराणिक रहस्य



अपनी सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात भगवान शिव ने समय-समय पर कई अवतारों की प्राप्ति की थी। पुराणों में भगवान शिव के कई अवतार विख्यात हैं लेकिन उनमें से कुछ ही ऐसे अवतार हैं जिन्हें हम प्रमुख रूप से याद करते हैं। इन्हीं प्रमुख अवतारों में से दो हैं: महेश व वृषभ। शिव के इन दो अवतारों को जानने के बाद उनकी महिमा हमारी सोच से बहुत आगे बढ़ जाती है। आइए संक्षेप में जानते हैं शंकर भगवान के इन अवतारों के बारे में:’


शिव का महेश अवतारशिव की नगरी में उनकी पत्नी माता पार्वती के एक द्वारपाल थे जिनका नाम था भैरव। उस समय उन्हें माता पार्वती के प्रति आकर्षण हो गया था जिस कारणवश एक दिन उन्होंने माता पार्वती के महल से बाहर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। भैरव के इस व्यवहार से माता क्रोधित हो उठीं और उन्होंने उसे ‘नश्वर’ रूप में धरती पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। धरती पर भैरव ने ‘वेताल’ के रूप में जन्म लिया और श्राप से मुक्त होने के लिए भगवान शिव के अवतार ‘महेश’ व माता पार्वती के अवतार ‘गिरिजा’ की तपस्या की।
 


शिव का वृषभ अवतार


शिव का यह अवतार एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को पूर्ण करने के लिए लिया गया था। वृषभ एक बैल था जिसने देवताओं को भगवान विष्णु के क्रूर पुत्रों के अत्याचारों से मुक्त करवाने के लिए पाताल लोक में जाकर उन्हें मारा था। लेकिन एक देवता के ही पुत्रों को क्यूं मारा था भगवान शिव ने?
 
 



शिव की वृषभ अवतार लेने के पीछे मंशा क्या थी?

समुद्र मंथन के पश्चात उसमें से कई वस्तुएं प्रकट हुई थीं जैसे कि हीरे, चंद्रमा, लक्ष्मी, विष, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, अमृत से भरा हुआ पात्र, व अन्य वस्तुएं। समुद्र से निकले उस अमृत पात्र के लिए देवताओं व दानवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था और अंत में वह पात्र दानवों के ही वश में आ गया। इसके पश्चात उस पात्र को पाने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु की मदद ली। शिव की दिव्य प्रेरणा की मदद से विष्णु ने अत्यंत सुंदरी के रूप ‘मोहिनी’ को धारण किया व दानवों के समक्ष प्रकट हुए। अपनी सुंदरता के छल से वे दानवों को विचलित करने में सफल हुए और अंत में उन्होंने उस अमृत पात्र को पा लिया।
 
 
दानवों की नजर से अमृत पात्र को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने मायाजाल से ढेर सारी अप्सराओं की सर्जना की। जब दानवों ने इन अप्सराओं को देखा तो उनसे आकर्षित हो वे उन्हें जबर्दस्ती अपने निवास पाताल लोक ले गए। इसके पश्चात जब वे अमृत पात्र को लेने के लिए वापस लौटे तब तक सभी देवता उस अमृत का सेवन कर चुके थे।



इस घटना की सूचना जब दानवों को मिली तो इस बात का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने देवताओं पर फिर से आक्रमण कर दिया। लेकिन इस बार दानवों की ही हार हुई और अपनी जान को बचाते हुए दानव अपने निवास पाताल की ओर भाग खड़े हुए। दानवों का पीछा करते हुए भगवान विष्णु उनके पीछे पाताल लोक पहुंच गए और वहां सभी दानवों का विनाश कर दिया। पाताल लोक में भगवान विष्णु द्वारा बनाई गई अप्सराओं ने जब विष्णु को देखा तो वे उन पर मोहित हो गईं और उन्होंने भगवान शिव से विष्णु को उनका स्वामी बन जाने का वरदान मांगा। अपने भक्तों की मुराद पूरी करने वाले भगवान शिव ने अप्सराओं का मांगा हुआ वरदान पूरा किया और विष्णु को अपने सभी धर्मों व कर्तव्यों को भूल अप्सराओं के साथ पाताल लोक में रहने के लिए कहा।
 
 
और फिर हुए थे शिव वृषभ रूप में प्रकट


भगवान विष्णु के पाताल लोक में वास के दौरान उन्हें अप्सराओं से कुछ पुत्रों की प्राप्ति हुई थी लेकिन यह पुत्र अत्यंत दुष्ट व क्रूर थे। अपनी क्रूरता के बल पर विष्णु के इन पुत्रों ने तीनों लोकों के निवासियों को परेशान करना शुरू कर दिया। उनके अत्याचार से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत हुए व उनसे विष्णु के पुत्रों को मारकर इस समस्या से मुक्त करवाने के लिए प्रार्थना की।



देवताओं की परेशानी को दूर करने के लिए भगवान शिव एक बैल यानि कि ‘वृषभ’के रूप में पाताल लोक पहुंच गए और वहां जाकर भगवान विष्णु के सभी पुत्रों को मार डाला। मौके पर पहुंचे भगवान विष्णु ने जब अपने पुत्रों को मृत पाया तो वे क्रोधित हो उठे और वृषभ पर अपने शस्त्रों के उपयोग से वार किया लेकिन उनके एक भी वार का वृषभ पर कोई असर ना हुआ।
 



वृषभ भगवान शिव का ही रूप था और कहा जाता है कि शिव व विष्णु शंकर नारायण का रूप थे। इसलिए युद्ध चलने के कई वर्षों के पश्चात भी दोनों में से किसी को भी किसी प्रकार की हानि ना हुई और अंत में जिन अप्सराओं ने विष्णु को अपने वरदान में बांध कर रखा था उन्होंने भी विष्णु को उस वरदान से मुक्त कर दिया। इसके पश्चात जब विष्णु को इन बातों का संज्ञान हुआ तो उन्होंने भगवान शिव की प्रशंसा की। 
 
 
 
अंत में भगवान शिव ने विष्णु को अपने लोक ‘विष्णुलोक या वैकुंठ’ वापस लौट जाने को कहा। भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र पाताल लोक में ही छोड़ जाने का फैसला किया और वैकुंठ लौटने पर उन्हें भगवान शिव द्वारा एक और सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई।

आखिर कैसे पैदा हुए कौरव?


कौरव न होते तो महाभारत न होता. महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी के 100 बेटे (कौरव) और पांडु के पांच बेटों (पांडवों) के बीच धर्मयुद्ध की लड़ाई और सत्य की जीत की कहानी है. पर बहुत कम लोग जानते हैं कि कौरव 100 नहीं बल्कि 102 थे. गांधारी जब धृतराष्ट्र से विवाह कर हस्तिनापुर आईं तो धृतराष्ट्र के अंधा होने की बात उन्हें पता नहीं थी. पति के अंधा होने की बात जानकर गांधारी ने भी आंखों पर पट्टी बांधकर आजीवन पति के समान रोशनी विहीन जीवन जीने का संकल्प लिया. इसी दौरान ऋषि व्यास उनसे मिलने हस्तिनापुर आए जिनकी उस अवस्था में भी गांधारी ने बहुत सेवा की.


गांधारी की सेवा और पतिव्रता संकल्प से प्रसन्न होकर ऋषि व्यास ने उन्हें 100 पुत्रों की माता होने का आशीर्वाद दिया. उन्हीं के आशीर्वाद से गांधारी दो वर्षों तक गर्भवती रहीं लेकिन उन्हें मृत मांस का लोथड़ा पैदा हुआ. तब ऋषि व्यास ने उसे 100 पुत्रों के लिए 100 टुकड़ों में काटकर घड़े में एक वर्ष तक बंद रखने का आदेश दिया. गांधारी द्वारा एक पुत्री की इच्छा व्यक्त करने पर ऋषि व्यास ने मांस के उस लोथड़े को खुद 101 टुकड़ों में काटा और घड़े में डालकर बंद किया जिससे एक वर्ष बाद दुर्योधन समेत गांधारी के 100 पुत्र और एक पुत्री दु:शला पैदा हुई.
 


कहते हैं धृतराष्ट्र की किसी दासी से संबध थे. जब कौरव जन्म ले रहे थे तब वह दासी भी गर्भवती थी. जब पहला घड़ा फूटा और दुर्योधन पैदा हुआ उसी वक्त उस दासी ने भी एक बेटे को जन्म दिया जिसका नाम था ‘युतुत्सु’. इस प्रकार कौरव 100 नहीं बल्कि 102 थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:1. दुर्योधन2. दु:शासन3. दुस्सह4. दु:शल5. जलसन्ध6. सम7. सह8. विन्द9. अनुविन्द10. दुर्धर्ष11. सुबाह12. दु़ष्ट्रधर्षण13. दुर्मर्षण14. दुर्मुख15. दुष्कर्ण16. कर्ण17. विविशन्ति18. विकर्ण19. शल20. सत्त्व21. सुलोचन22. चित्र23. उपचित्र24. चित्राक्ष25. चारुचित्रशारानन26. दुर्मद27. दुरिगाह28. विवित्सु29. विकटानन30. ऊर्णनाभ31. सुनाभ32. नन्द33. उपनन्द34. चित्रबाण35. चित्रवर्मा36. सुवर्मा37. दुर्विरोचन
38. अयोबाहु39. चित्राङ्ग40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग42. भीमबल43. बलाकि44. बलवर्धन45. उग्रायुध46. सुषेण47. कुण्डोदर48. महोदर49. चित्रायुध50. निषङ्गी51. पाशी52. वृन्दारक53. दृढवर्मा54. दृढक्षत्र55. सोमकीर्ति56. अनूर्दर57. दृढसन्ध58. जरासन्ध59. सत्यसन्ध60. सदस्सुवाक्61. उग्रश्रव62. उग्रसेन63. सेनानी64. दुष्पराजय65. अपराजित66. पण्डितक67. विशलाक्ष68. दुराधर69. दृढहस्त70. सुहस्त71. वातवेग72. सुवर्चस73. आदित्यकेतु74. बह्वाशी75. नागदत्
76. अग्रयायॊ77. कवची78. क्रथन79. दण्डी80. दण्डधार81. धनुर्ग्रह82. उग्र83. भीमरथ84. वीरबाहु85. अलोलुप86. अभय87. रौद्रकर्मा88. द्रुढरथाश्रय89. अनाधृष्य90. कुण्डभेदी91. विरावी92. प्रमथ93. प्रमाथी94. दीर्घारोम95. दीर्घबाहु96. व्यूढोरु97. कनकध्वज98. कुण्डाशी99. विरज100. दुहुसलाई101. दु:शला (पुत्री)‎102. युयुत्सु