Friday, August 1, 2014

यह योद्धा यदि दुर्योधन के साथ मिल जाता तो महाभारत युद्ध का परिणाम ही कुछ और होता…पर




हिन्दुओं के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत में शूरवीरों और योद्धाओं की कमी नहीं है. हर कोई एक से बढ़कर एक है. इस काव्य ग्रंथ में केंद्रबिंदु की भूमिका में रहे भगवान श्रीकृष्ण सभी योद्धाओं के पराक्रम से सुपरिचित थे. पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले श्रीकृष्ण सभी योद्धाओं की युद्ध क्षमता को आंकना चाहते थे इसलिए उन्होंने सभी से एक ही सवाल पूछा. “अकेले अपने दम पर महाभारत युद्ध को कितने दिन में समाप्त किया जा सकता है?” पांडु पुत्र भीम ने जवाब दिया कि वह 20 दिन में इस युद्ध को समाप्त कर सकते हैं. वहीं उनके गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि युद्ध को समाप्त करने में उन्हें 25 दिन लगेंगे. अंगराज कर्ण ने इस युद्ध को खत्म करने के लिए 24 दिन पर्याप्त बताया जबकि इन्हीं के प्रतिद्वंदी अर्जुन ने 28 दिन बताया.




लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने जब यही सवाल घटोत्कच के पुत्र और बलशाली भीम के पौत्र बर्बरीक से पूछा तो जवाब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण सन्न रह गए. बर्बरीक ने कहा कि वह महज कुछ ही पलों में युद्ध की दशा और दिशा तय कर सकते हैं. बर्बरीक के बारे में कहा जाता है कि वह बाल्यकाल से ही बहुत वीर और महान यौद्धा थे. उन्होंने युद्ध कला अपनी मां मौरवी से सीखी थी. यही नहीं भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्होंने तीन अमोघ बाण भी प्राप्त किए.

कहा जाता है कि जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ उस दौरान बर्बरीक में इस युद्ध में भाग लेने की बहुत ही ज्यादा व्याकुलता थी ताकि वह अपनी शक्ति को प्रदर्शित कर सकें. उन्होंने अपनी माता मौरवी के समक्ष युद्ध में जाने की इच्छा प्रकट की. माता मौरवी ने इजाजत दे दी. फिर बर्बरीक ने अपनी माता से पूछा कि वह युद्ध में किसका साथ दें? माता ने सोचा कि कौरवों के साथ तो उनकी विशाल सेना है, जिसमें भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, कृपाचार्य, अंगराज कर्ण जैसे महारथी हैं. इनके सामने पांडव अवश्य ही हार जाएंगे. ऐसा सोच माता मौरवी ने अपने पुत्र बर्बरीक से कहा कि “जो हार रहा हो उसी का सहारा बनना पुत्र”. वैसे कहा यह भी जाता है कि गुरु की शिक्षा लेने के दौरान बर्बरीक ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने गुरु को वचन दिया था कि वह कभी व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए युद्ध नहीं करेंगे. साथ ही युद्ध में जो पक्ष कमजोर होगा उसके साथ खड़ा होंगे.


अपनी माता और गुरु का वचन लिए जब बर्बरीक अपने घोड़े, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए तभी बीच में वासुदेव कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक को रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उड़ाई कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आए हैं. ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकस में ही आएगा.


भगवान श्रीकृष्ण बर्बरीक के युद्ध कौशल को देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने उन्हें चुनौती दी. उन्होंने बर्बरीक से कहा कि पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनों खड़े थे. बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया. तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के ईर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, तीर उनके पैर को भेदते हुए वहीं पर गड़ गया.



भगवान श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध का अंत जानते थे, साथ ही वह बर्बरीक के मन को भी समझ चुके थे. इसलिए उन्होंने सोचा कि अगर कौरवों को हारता देख बर्बरीक कौरवों का साथ देने लगा तो पांडवों की हार निश्चित है. तभी ब्राह्मण रूपी वेश में श्रीकृष्ण ने चलाकी से बालक बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वह उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होंगे तो अवश्य ही उनकी मांग पूर्ण करेंगे. कृष्ण ने बर्बरीक से दान में शीश मांगा, बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए अचंभित हो गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जताई. बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तविक रूप में दर्शन की इच्छा व्यक्त की. तब श्रीकृष्ण अपने वास्तविक रूप में आए. कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की. अर्जुन, संजय, पवन पुत्र हनुमान के अलावा बर्बरीक चौथे व्यक्ति थे जिनकी अभिलाषाओं को श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर पूर्ण किया.


भगवान श्रीकृष्ण को अपना शीश दान भेंट करने से पूर्व बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक महाभारत युद्ध देखना चाहते हैं. श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली. फाल्गुन मास की द्वादशी को बर्बरीक ने अपने आराध्य देवी-देवताओं की वंदना की और अपनी माता का नमन किया. फिर कमर से कटार खींचकर एक ही वार में अपने शीश को धड़ से अलग कर भगवान श्रीकृष्ण को दान में दे दिया. भगवान ने उस शीश को अमृत से सींचकर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित कर दिया, ताकि बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकें.

कृष्ण के मित्र सुदामा एक राक्षस थे जिनका वध भगवान शिव ने किया

गोकुलवासी श्री कृष्ण के मित्र ‘सुदामा’ अपनी मित्रता की वजह से शास्त्रों में जाने जाते हैं. शांत व सरल स्वभाव, कृष्ण के हृदय में अपनी एक अलग ही छवि बनाने वाले सुदामा को दुनिया मित्रता के प्रतिरूप के रूप में याद करती है, लेकिन इनका एक रूप ऐसा भी था जिसकी वजह से भगवान शिव ने उनका वध किया था. इस तथ्य पर विश्वास करना कठिन तो है परंतु यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो यह सच उभर कर सामने आता है. तो ऐसा क्या किया था सुदामा ने जिस कारण भगवान शिव को विवश होकर उनका वध तक करना पड़ा?



सुदामा का पुनर्जन्म हुआ राक्षस शंखचूण के रूप में
स्वर्ग के विशेष भाग गोलोक में सुदामा और विराजा निवास करते थे. विराजा को कृष्ण से प्रेम था किंतु सुदामा स्वयं विराजा को प्रेम करने लगे. एक बार जब विराजा और कृष्ण प्रेम में लीन थे तब स्वयं राधा जी वहां प्रकट हो गईं और उन्होंने विराजा को गोलोक से पृथ्वी पर निवास करने का श्राप दिया. इसके बाद किसी कारणवश राधा जी ने सुदामा को भी श्राप दे दिया जिससे उन्हें गोलोक से पृथ्वी पर आना पड़ा. मृत्यु के पश्चात सुदामा का जन्म राक्षसराज दम्भ के यहां शंखचूण के रूप में हुआ तथा विराजा का जन्म धर्मध्वज के यहां तुलसी के रूप में हुआ. 
मां तुलसी से विवाह के पश्चात शंखचूण उनके साथ अपनी राजधानी वापस लौट आए. कहा जाता है कि शंखचूण को भगवान ब्रह्मा का वरदान प्राप्त था और उन्होंने शंखचूण की रक्षा के लिए उन्हें एक कवच दिया था और साथ ही यह भी कहा था कि जब तक तुलसी तुम पर विश्वास करेंगी तब तक तुम्हें कोई जीत नहीं पाएगा. और इसी कारण शंखचूण धीरे-धीरे कई युद्ध जीतते हुए तीनों लोकों के स्वामी बन गए.
 
शंखचूण के क्रूर अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान ब्रह्मा से सुझाव की प्रार्थना की. ब्रह्मा जी द्वारा भगवान विष्णु से सलाह लेने की बात कहे जाने पर देवतागण विष्णु के पास गए. विष्णु ने उन्हें शिव जी से सलाह लेने को कहा. देवताओं की परेशानी को समझते हुए भगवान शिव ने उन्हें शंखचूण को मार कर उसके बुरे कर्मों से मुक्ति दिलाने का वचन दिया. लेकिन इससे पहले भगवान शिव ने शंखचूण को शांतिपूर्वक देवताओं को उनका राज्य वापस सौंपने का प्रस्ताव रखा परंतु हिंसावादी शंखचूण ने शिव को ही युद्ध लड़ने के लिए उत्तेजित किया.
 शंखचूण यानि कि सुदामा के पुनर्जन्म के रूप से युद्ध के प्रस्ताव के पश्चात भगवान शिव ने अपने पुत्रों कार्तिकेय व गणेश को युद्ध के मैदान में उतारा. इसके बाद भद्रकाली भी विशाल सेना के साथ युद्ध के मैदान में उतरीं. शंखचूण पर भगवान ब्रह्मा के वरदान के कारण उन्हें मारना काफी कठिन था तो अंत में भगवान विष्णु युद्ध के दौरान शंखचूण के सामने प्रकट हुए और उनसे उनका कवच मांगा जो उन्हें ब्रह्माजी ने दिया था. शंखचूण ने तुरंत ही कवच भगवान विष्णु को सौंप दिया.
 


तत्पश्चात मां पार्वती के कहने पर भगवान विष्णु ने कुछ ऐसा किया कि युद्ध का पूरा दृश्य ही बदल गया. वे शंखचूण के कवच को पहनकर उस अवतार में मां तुलसी के समक्ष उपस्थित हुए. उनके रूप को देखकर मां तुलसी उन्हें अपना पति मान बैठीं और बेहद प्रसन्नता से उनका आदर सत्कार किया. जिस कारण मां तुलसी का पातिव्रत्य खंडित हो गया. शंखचूण की शक्ति उनकी पत्नी के पातिव्रत्य पर स्थित थी किंतु इस घटना के पश्चात वह शक्ति निष्प्रभावी हो गई. वरदान की शक्ति के समापन पर भगवान शिव ने शंखचूण का वध कर देवताओं को उसके अत्याचार से मुक्त किया. तो इस प्रकार से सुदामा के पुनर्जन्म के अवतरण शंखचूण का विनाश भगवान शिव के हाथों संपन्न हुआ था.


तुलसी के श्राप से विष्णु बने शालिग्राम


विष्णु द्वारा छले जाने पर तुलसी ने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दिया. तुलसी के रूदन से प्रभावित भगवान विष्णु द्वारा भगवान शिव से मुक्ति की प्रार्थना की गई, तब शिव ने तुलसी को विष्णुप्रिया बनने का वरदान दिया तथा यह कहा कि जहां तुलसी की पूजा होगी वहीं पत्थर रूपी विष्णु की शालिग्राम के रूप में पूजा होगी. इसलिए आज भी तुलसी और शालिग्राम की एक साथ उपस्थिति और पूजा अनिवार्य रूप से प्रचलित है.

विष्णु के पुत्रों को क्यों मार डाला था भगवान शिव ने, जानिए एक पौराणिक रहस्य



अपनी सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात भगवान शिव ने समय-समय पर कई अवतारों की प्राप्ति की थी। पुराणों में भगवान शिव के कई अवतार विख्यात हैं लेकिन उनमें से कुछ ही ऐसे अवतार हैं जिन्हें हम प्रमुख रूप से याद करते हैं। इन्हीं प्रमुख अवतारों में से दो हैं: महेश व वृषभ। शिव के इन दो अवतारों को जानने के बाद उनकी महिमा हमारी सोच से बहुत आगे बढ़ जाती है। आइए संक्षेप में जानते हैं शंकर भगवान के इन अवतारों के बारे में:’


शिव का महेश अवतारशिव की नगरी में उनकी पत्नी माता पार्वती के एक द्वारपाल थे जिनका नाम था भैरव। उस समय उन्हें माता पार्वती के प्रति आकर्षण हो गया था जिस कारणवश एक दिन उन्होंने माता पार्वती के महल से बाहर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। भैरव के इस व्यवहार से माता क्रोधित हो उठीं और उन्होंने उसे ‘नश्वर’ रूप में धरती पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। धरती पर भैरव ने ‘वेताल’ के रूप में जन्म लिया और श्राप से मुक्त होने के लिए भगवान शिव के अवतार ‘महेश’ व माता पार्वती के अवतार ‘गिरिजा’ की तपस्या की।
 


शिव का वृषभ अवतार


शिव का यह अवतार एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को पूर्ण करने के लिए लिया गया था। वृषभ एक बैल था जिसने देवताओं को भगवान विष्णु के क्रूर पुत्रों के अत्याचारों से मुक्त करवाने के लिए पाताल लोक में जाकर उन्हें मारा था। लेकिन एक देवता के ही पुत्रों को क्यूं मारा था भगवान शिव ने?
 
 



शिव की वृषभ अवतार लेने के पीछे मंशा क्या थी?

समुद्र मंथन के पश्चात उसमें से कई वस्तुएं प्रकट हुई थीं जैसे कि हीरे, चंद्रमा, लक्ष्मी, विष, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, अमृत से भरा हुआ पात्र, व अन्य वस्तुएं। समुद्र से निकले उस अमृत पात्र के लिए देवताओं व दानवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था और अंत में वह पात्र दानवों के ही वश में आ गया। इसके पश्चात उस पात्र को पाने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु की मदद ली। शिव की दिव्य प्रेरणा की मदद से विष्णु ने अत्यंत सुंदरी के रूप ‘मोहिनी’ को धारण किया व दानवों के समक्ष प्रकट हुए। अपनी सुंदरता के छल से वे दानवों को विचलित करने में सफल हुए और अंत में उन्होंने उस अमृत पात्र को पा लिया।
 
 
दानवों की नजर से अमृत पात्र को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने मायाजाल से ढेर सारी अप्सराओं की सर्जना की। जब दानवों ने इन अप्सराओं को देखा तो उनसे आकर्षित हो वे उन्हें जबर्दस्ती अपने निवास पाताल लोक ले गए। इसके पश्चात जब वे अमृत पात्र को लेने के लिए वापस लौटे तब तक सभी देवता उस अमृत का सेवन कर चुके थे।



इस घटना की सूचना जब दानवों को मिली तो इस बात का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने देवताओं पर फिर से आक्रमण कर दिया। लेकिन इस बार दानवों की ही हार हुई और अपनी जान को बचाते हुए दानव अपने निवास पाताल की ओर भाग खड़े हुए। दानवों का पीछा करते हुए भगवान विष्णु उनके पीछे पाताल लोक पहुंच गए और वहां सभी दानवों का विनाश कर दिया। पाताल लोक में भगवान विष्णु द्वारा बनाई गई अप्सराओं ने जब विष्णु को देखा तो वे उन पर मोहित हो गईं और उन्होंने भगवान शिव से विष्णु को उनका स्वामी बन जाने का वरदान मांगा। अपने भक्तों की मुराद पूरी करने वाले भगवान शिव ने अप्सराओं का मांगा हुआ वरदान पूरा किया और विष्णु को अपने सभी धर्मों व कर्तव्यों को भूल अप्सराओं के साथ पाताल लोक में रहने के लिए कहा।
 
 
और फिर हुए थे शिव वृषभ रूप में प्रकट


भगवान विष्णु के पाताल लोक में वास के दौरान उन्हें अप्सराओं से कुछ पुत्रों की प्राप्ति हुई थी लेकिन यह पुत्र अत्यंत दुष्ट व क्रूर थे। अपनी क्रूरता के बल पर विष्णु के इन पुत्रों ने तीनों लोकों के निवासियों को परेशान करना शुरू कर दिया। उनके अत्याचार से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत हुए व उनसे विष्णु के पुत्रों को मारकर इस समस्या से मुक्त करवाने के लिए प्रार्थना की।



देवताओं की परेशानी को दूर करने के लिए भगवान शिव एक बैल यानि कि ‘वृषभ’के रूप में पाताल लोक पहुंच गए और वहां जाकर भगवान विष्णु के सभी पुत्रों को मार डाला। मौके पर पहुंचे भगवान विष्णु ने जब अपने पुत्रों को मृत पाया तो वे क्रोधित हो उठे और वृषभ पर अपने शस्त्रों के उपयोग से वार किया लेकिन उनके एक भी वार का वृषभ पर कोई असर ना हुआ।
 



वृषभ भगवान शिव का ही रूप था और कहा जाता है कि शिव व विष्णु शंकर नारायण का रूप थे। इसलिए युद्ध चलने के कई वर्षों के पश्चात भी दोनों में से किसी को भी किसी प्रकार की हानि ना हुई और अंत में जिन अप्सराओं ने विष्णु को अपने वरदान में बांध कर रखा था उन्होंने भी विष्णु को उस वरदान से मुक्त कर दिया। इसके पश्चात जब विष्णु को इन बातों का संज्ञान हुआ तो उन्होंने भगवान शिव की प्रशंसा की। 
 
 
 
अंत में भगवान शिव ने विष्णु को अपने लोक ‘विष्णुलोक या वैकुंठ’ वापस लौट जाने को कहा। भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र पाताल लोक में ही छोड़ जाने का फैसला किया और वैकुंठ लौटने पर उन्हें भगवान शिव द्वारा एक और सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई।

आखिर कैसे पैदा हुए कौरव?


कौरव न होते तो महाभारत न होता. महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी के 100 बेटे (कौरव) और पांडु के पांच बेटों (पांडवों) के बीच धर्मयुद्ध की लड़ाई और सत्य की जीत की कहानी है. पर बहुत कम लोग जानते हैं कि कौरव 100 नहीं बल्कि 102 थे. गांधारी जब धृतराष्ट्र से विवाह कर हस्तिनापुर आईं तो धृतराष्ट्र के अंधा होने की बात उन्हें पता नहीं थी. पति के अंधा होने की बात जानकर गांधारी ने भी आंखों पर पट्टी बांधकर आजीवन पति के समान रोशनी विहीन जीवन जीने का संकल्प लिया. इसी दौरान ऋषि व्यास उनसे मिलने हस्तिनापुर आए जिनकी उस अवस्था में भी गांधारी ने बहुत सेवा की.


गांधारी की सेवा और पतिव्रता संकल्प से प्रसन्न होकर ऋषि व्यास ने उन्हें 100 पुत्रों की माता होने का आशीर्वाद दिया. उन्हीं के आशीर्वाद से गांधारी दो वर्षों तक गर्भवती रहीं लेकिन उन्हें मृत मांस का लोथड़ा पैदा हुआ. तब ऋषि व्यास ने उसे 100 पुत्रों के लिए 100 टुकड़ों में काटकर घड़े में एक वर्ष तक बंद रखने का आदेश दिया. गांधारी द्वारा एक पुत्री की इच्छा व्यक्त करने पर ऋषि व्यास ने मांस के उस लोथड़े को खुद 101 टुकड़ों में काटा और घड़े में डालकर बंद किया जिससे एक वर्ष बाद दुर्योधन समेत गांधारी के 100 पुत्र और एक पुत्री दु:शला पैदा हुई.
 


कहते हैं धृतराष्ट्र की किसी दासी से संबध थे. जब कौरव जन्म ले रहे थे तब वह दासी भी गर्भवती थी. जब पहला घड़ा फूटा और दुर्योधन पैदा हुआ उसी वक्त उस दासी ने भी एक बेटे को जन्म दिया जिसका नाम था ‘युतुत्सु’. इस प्रकार कौरव 100 नहीं बल्कि 102 थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:1. दुर्योधन2. दु:शासन3. दुस्सह4. दु:शल5. जलसन्ध6. सम7. सह8. विन्द9. अनुविन्द10. दुर्धर्ष11. सुबाह12. दु़ष्ट्रधर्षण13. दुर्मर्षण14. दुर्मुख15. दुष्कर्ण16. कर्ण17. विविशन्ति18. विकर्ण19. शल20. सत्त्व21. सुलोचन22. चित्र23. उपचित्र24. चित्राक्ष25. चारुचित्रशारानन26. दुर्मद27. दुरिगाह28. विवित्सु29. विकटानन30. ऊर्णनाभ31. सुनाभ32. नन्द33. उपनन्द34. चित्रबाण35. चित्रवर्मा36. सुवर्मा37. दुर्विरोचन
38. अयोबाहु39. चित्राङ्ग40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग42. भीमबल43. बलाकि44. बलवर्धन45. उग्रायुध46. सुषेण47. कुण्डोदर48. महोदर49. चित्रायुध50. निषङ्गी51. पाशी52. वृन्दारक53. दृढवर्मा54. दृढक्षत्र55. सोमकीर्ति56. अनूर्दर57. दृढसन्ध58. जरासन्ध59. सत्यसन्ध60. सदस्सुवाक्61. उग्रश्रव62. उग्रसेन63. सेनानी64. दुष्पराजय65. अपराजित66. पण्डितक67. विशलाक्ष68. दुराधर69. दृढहस्त70. सुहस्त71. वातवेग72. सुवर्चस73. आदित्यकेतु74. बह्वाशी75. नागदत्
76. अग्रयायॊ77. कवची78. क्रथन79. दण्डी80. दण्डधार81. धनुर्ग्रह82. उग्र83. भीमरथ84. वीरबाहु85. अलोलुप86. अभय87. रौद्रकर्मा88. द्रुढरथाश्रय89. अनाधृष्य90. कुण्डभेदी91. विरावी92. प्रमथ93. प्रमाथी94. दीर्घारोम95. दीर्घबाहु96. व्यूढोरु97. कनकध्वज98. कुण्डाशी99. विरज100. दुहुसलाई101. दु:शला (पुत्री)‎102. युयुत्सु
 

अपने पिता के शरीर का मांस खाने के लिए क्यों मजबूर थे पांडव?



हिंदुओं का सबसे बड़ा ग्रंथ महाभारत एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसकी एक-एक घटना लोगों रोमांचित करती है. खास तौर पर उस तरह की घटनाएं जिनको लेकर आप पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. लोग बार-बार ऐसी घटनाओं को सुनना पसंद करते हैं. आज हम आपको महाभारत की एक ऐसी ही दिलचस्प और उल्लेखनीय पहलू बाताने जा रहे हैं जिससे शायद आप अंजान हो.
पाण्डु पुत्रों में (युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव) सहदेव ही एकमात्र ऐसे पुत्र थे जिनके बारे में कहा जाता है कि पिता का सबसे ज्यादा ज्ञान उन्हीं को ही प्राप्त हुआ था. दरअसल राजा पांडव ने मृत्यु से पहले एक अजीब तरह का वरदान मांगा था. उनके अनुसार जब उनकी मृत्यु हो तो उनके शरीर का मांस उनके पांचों पुत्र खाएं. उनका मानना था कि इस तरह करने से उनका पूरा ज्ञान जो उन्होंने अपने जीवनकाल में प्राप्त किया था उनके बच्चों को स्थानांतरित हो जाएगा.


पुत्रों द्वारा पिता पांडव के मांस खाने को लेकर तरह-तरह की घटनाएं है. कोई कहता है कि बाकी पुत्रों को छोड़कर केवल सहदेव ने ही मांस खाया था, तो कोई कहता है कि मांस तो पांचों पुत्रों ने खाया लेकिन उनमें से सबसे ज्यादा मांस सहदेव ने खाया. इस तरह से पाण्डु पुत्रों में सहदेव को ही सबसे ज्यादा ज्ञान प्राप्त हुआ.

तलवार में निपुण सहदेव ने अपने पिता से जो ज्ञान अर्जित किया उसके अनुसार वह भविष्य की घटनाओं को बहुत ही जल्दी भांप लेते थे. उन्हें यह भी पता था कि आने वाले वक्त में महाभारत युद्ध होने वाला था. युद्ध में कौन जीतेगा, कौन हारेगा, किसकी मृत्यु होगी आदि सबकुछ पता था.


भगवान श्रीकृष्ण का श्राप
शास्त्रों के अनुसार महाभारत युद्ध का परिणाम केवल एक ही व्यक्ति जानता था वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। लेकिन श्रीकृष्ण को यह भी ज्ञात था कि उनके अलावा सहदेव भी जानते थे कि युद्ध में क्या होने वाला है इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने सहदेव को बहुत पहले ही श्राप दे रखा था कि अगर वह युद्ध के बारे में किसी को बताएंगे तो उनकी मृत्यु हो जाएगी.

पुराणों में दर्ज एक अद्भुत सत्य

एक साधारण से बालक ने शनि देव को अपाहिज बना दिया था



सभी देवताओं में शनि ऐसे देवता हैं जिनकी पूजा लगभग हर व्यक्ति करता है. पूरे जीवन काल में कम से कम एक बार शनि की साढ़े साती का कुप्रभाव हर किसी को भुगतना ही पड़ता है. पंचांग में शनि की दृष्टि मारक मानी जाती है. शनि की इस मारक दृष्टि से मनुष्य ही नहीं देव भी डरते हैं.

पुराणों में वर्णित है कि सभी देवों में एकमात्र हनुमान ही हैं जिन्होंने शनि को हराया है और इस कारण शनिदेव की पूजा करने वाला हर मनुष्य शनि के प्रकोप से बच जाता है. पर हनुमान के अलावा भी एक और शख्स है जिससे शनिदेव न सिर्फ हारे हैं बल्कि उसकी एक मारक दृष्टि ने शनि को अपाहिज भी बना दिया था.

पुराणों में वर्णित एक कथा के अनुसार ऋषि कौशिक के पुत्र पिप्पलाद की क्रोध भरी मारक दृष्टि के प्रकोप की वजह से आसमान से शनिदेव सीधा नीचे जमीन पर आ गिरे और उनका एक पैर टूट गया और तब से शनिदेव अपाहिज हैं.
कथा के अनुसार त्रेतायुग में एक बार बहुत भयंकर अकाल पड़ा. ऋषि कौशिक भी उसकी पीड़ा से नहीं बच सके और पत्नी-बच्चों समेत सुरक्षित स्थान की खोज में निकल पड़े. रास्ते में परिवार का भरण-पोषण कठिन जान पड़ने पर उन्होंने अपने एक पुत्र को बीच रास्ते में ही छोड़ दिया. वह बालक बड़ा दुखी हुआ. एक जगह उसे पीपल का पेड़ और उसके नजदीक ही एक तालाब नजर आया. भूख से व्याकुल वह बालक उसी पीपल के पत्तों को खाकर और तालाब से पानी पीकर वहीं अपने दिन बिताने लगा.
एक दिन आकाश गमन करते ऋषि नारद की नजर उसपर पड़ी और उसके साहसी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्होंने उसे भगवान विष्णु की पूजा विधि बताकर पूजा करने की सलाह दी. बालक ने नित्य प्रति पूजा करते हुए भगवान विष्णु को प्रसन्न कर लिया और उनसे योग एवं ज्ञान की शिक्षा लेकर महर्षि बन गया. ऋषि नारद ने उसका नाम पिप्पलाद रखा.
एक दिन जिज्ञासावश महर्षि पिप्पलाद ने नारद से अपने बाल जीवन के कष्टों का कारण पूछा. नारद जी ने पिप्पलाद को बताया कि उसके इस दुख का कारण शनि का मनमानी और आत्माभिमानी भरा रवैया है जिसके कारण सभी देव उससे डरते हैं. यह सुनकर पिप्पलाद को बहुत गुस्सा आया और उसने क्रोध भरी दृष्टि से आसमान में शनि को देखा. पिप्पलाद की उस क्रोध भरी नजर के प्रभाव से शनि घायल होकर जमीन पर गिर पड़े और उनका एक पैर घायल हो गया. पिप्पलाद तब भी शांत नहीं हुए लेकिन इससे पहले कि वह शनि को कोई और नुकसान पहुंचाते, ब्रह्मा जी वहां प्रकट हुए और पिप्पलाद को बताया कि विधि के विधान के अनुसार शनि को अपना काम करना होता है और उनके साथ जो हुआ है उसमें शनि की कोई गलती नहीं थी. ब्रह्मा जी ने पिप्पलाद को आशीर्वाद दिया कि शनिवार के दिन पिप्पलाद का ध्यान कर जो भी शनिदेव की पूजा करेगा उसे शनि के कष्टों से मुक्ति मिलेगी. तब से आज तक शनिवार के दिन शनि ग्रह की शांति के लिए शनिदेव के साथ पीपल की पूजा का भी विधान बन गया.