Saturday, December 31, 2011

क्या sex को प्यार का नाम देना प्यार को बदनाम करने जैसा अपराध नहीं ?

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आज हम भारत में अपने चारों ओर जब नजर दौड़ाते हैं, तो एक संघर्ष हर तरफ नजर आता है। यह संघर्ष है राष्ट्रवादी बनाम सेकुलरवादी सोच का । इस संघर्ष के बारे में अपना पक्ष स्पष्ट करने से पहले हमें मानव और पशु के बीच का अन्तर अच्छी तरह से समझना होगा।
हमारे विचार में मानव और पशु के बीच सबसे बड़ा अन्तर यह है कि मानव समाज में रहता है और सामाजिक नियमों का पालन करता है जबकि पशु के लिए सामाजिक नियम कोई माइने नहीं रखते ।
क्योंकि मानव समाज में रहता है इसलिए सामाजिक नियमों का पालन करते हुए जीवन यापन करना मानव की सबसे बड़ी विशेषता है ।
प्रश्न पैदा होता है कि सामाजिक नियम क्या हैं ? ये नियम कौन बनाता है ? क्यों बनाता है?
सामाजिक नियम वह कानून हैं जो समाज अपने नागरिकों के सफल जीवनयापन के लिए स्वयं तय करता है। ये कानून मानव के लिए वे मूल्य निर्धारित करते हैं जो मानव को व्यवस्थित व मर्यादित जीवन जीने का स्वाभाविक वातावरण उपलब्ध करवाते हैं । ये सामाजिक नियम मनुष्य को शोषण से बचाते हुए सभ्य जीवन जीने का अवसर प्रदान करते हैं। कोई भी समाज तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक वह व्यवस्थित न हो । वेशक इन सामाजिक नियमों का पालन करने के लिए मनुष्य को व्यक्तिगत आज़ादी त्याग कर समाज द्वारा निर्धारित अचार संहिता का पालन करना पड़ता है । कई बार तो यह अचार संहिता मानव के जीवन को इस हद तक प्रभावित करती है कि मानव इससे पलायन करने की कुचेष्ठा कर बैठता है । अगर ये कुचेष्ठा बड़े स्तर पर हो तो यह एक नई सामाजिक व्यवस्था को जन्म दे सकती है लेकिन इस नई व्यवस्था में भी नये सामाजिक नियम मानव जीवन को नियन्त्रित करते हैं । यहां बेशक पहले की तुलना में कम बन्धन होते हैं लेकिन इन बन्धनों के विना समाज नहीं बन सकता। क्योंकि बिना सामाजिक नियमों के चलने वाला समूह भीड़ तो बना सकता है पर समाज नहीं। समाज ही तो मानव को पशुओं से अलग करता है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि सामाजिक नियम मानव जीवन का वो गहना है जिसका त्याग करने पर मानव जीवन के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
अगर हम मानव इतिहास पर नजर दौड़ायें तो संसार में प्रमुख रूप से तीन समाजों का प्रभुत्व नजर आता है परन्तु ये तीनों समाज एक ही समाज से निकले हुए प्रतीत होते हैं। हिन्दु समाज संसार का प्राचीनतम व सभ्यतम् समाज है । इसाई समाज दूसरे व मुस्लिम समाज तीसरे नम्बर पर नजर आता है।
आज से लगभग 2000 वर्ष पहले न ईसाईयत थी न इस्लाम था सिर्फ हिन्दुत्व था । साधारण हिन्दु राजा विक्रमादित्य व अशोक महान लगभग 2050 वर्ष पहले हुए जबकि ईसाईयों के धार्मिक गुरू ईशु भी उस वक्त पैदा नहीं हुए थे । उस वक्त ईस्लाम के होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता क्योंकि इस्लाम तो आज से लगभग 1500 वर्ष पहले अस्तित्व में आया । भगवान श्रीकृष्ण जी का अबतार आज से लगभग 5000 वर्ष पहले हुआ । भगवान श्री राम, ब्रहमा-विष्णु-महेश जी के अबतार के समय के बारे में पता लगाना वर्तमान मानव के बश की बात ही नहीं है।
श्रृष्टि के निर्माण से लेकर आज तक एक विचार जो निरंतर चलता आ रहा है उसी का नाम सनातन है। यही सनातन मानव जीवन को सुखद व द्वेशमुक्त करता रहता है। यही वो सनातन है जिसके अपने आंचल से निकली ईसाईयत व इसलाम ने ही सनातन को समाप्त करने के लिए अनगिनत प्रयास किए लेकिन इनका कोई प्रयास सनातन की सात्विक व परोपकारी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप सफल न हो पाया। हजारों बर्षों के बर्बर हमलों व षडयन्त्रों के बाबजूद आज भी ऐसा प्रतीत होता है कि सनातन से निकले ईसाईयत व ईसलाम वापस सनातन में समाने को आतुर हैं ।
सनातन का ही सुसंगठित स्वरूप हिन्दुत्व है हिन्दुत्व ही आज भारत में सब लोगों को शांति और भाईचारे से जीने का रास्ता दिखा रहा है। ईसाईयत और ईसलाम की सम्राज्यबादी हमलाबर सोच के परिणामस्वरूप हिन्दुत्व का भी सैनिकीकरण करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है और कुछ हद तक हिन्दुत्व का सैनिकीकरण हो भी चुका है। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर व लेफ्टीनेंट कर्नल जैसे क्रांतिकारी इसी सैनिकीकरण की उपज हैं।
अगर ईसाईयत और ईस्लाम का भरतीय संस्कृति और सभ्यता पर हमला इसी तरह जारी रहा तो हो सकता है हिन्दुत्व को कुछ समय के लिए अपनी सर्वधर्मसम्भाव की प्रवृति से उस समय तक समझौता करना पड़े जब तक इन हमलाबारों का ऋषियों मुनियों की पुण्यभूमि भारत से समूल नाश न कर दिया जाए। बेशक उदारता व शांति ही हिन्दुत्व के आधारस्तम्भ हैं लेकिन जब हिन्दुत्व ही न बचेगा तो ये सब चीजें बेमानी हो जायेंगी। अतः सर्वधर्मसम्भाव, उदारता व शांति को बनाए रखने के लिए हिन्दुत्व का बचाब अत्यन्त आवश्यक है।
अपने इस उदेश्य की पूर्ति के लिए अगर कुछ समय तक हिन्दुत्व के इन आधार स्तम्भों से समझौता कर इन आक्रमणकारियों के हमलों का इन्हीं की भाषा में उतर देकर मानवता की रक्षा की खातिर हिन्दुत्व के सैनिकीकरण को बढ़ाबा देकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की जा सके तो इस में बुराई भी क्या है ?
जो हिन्दु हिन्दुत्व के सैनिकीकरण की अबधारणा से सहमत नहीं हैं उन्हें जरा भारत के मानचित्र को सामने रखकर यह विचार करना चाहिए कि जिन हिस्सों में हिन्दुओं की जनसंख्या कम होती जा रही है वो हिस्से आतंकवाद,हिंसा और दंगों के शिकार क्यों हैं ? जहां हिन्दुओं की जनसंख्या निर्णायक स्थिति में है वहां कयों दंगा नहीं होता ? कयों हिंसा नहीं होती ? कयों सर्वधर्मसम्भाव वना रहता है ?क्यों मुसलमान परिवार नियोजन, वन्देमातरम् का विरोध करते हैं ? क्यों ईसाई हर तरह के विघटनकारी मार्ग अपनाकर धर्मांतरण पर जोर देते हैं ?
ये सब ऐसे प्रश्न हैं जिनका सरल और सपष्ट उतर यह है कि ईसायत और ईस्लाम राजनीतिक विचारधारायें हैं न कि धार्मिक । इन दोनों विचारधाराओं का एकमात्र मकसद अपनी राजनीतिक सोच का प्रचार-प्रसार है न कि मानवता की भलाई। अपनी विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए ये दोनों किसी भी हद तक गिर सकते है ।इस्लाम का प्रमुख हथियार है हिंसा और ईसाईयत का प्रमुख हथियार है छल कपट और हिंसा। दूसरी तरफ हिन्दुत्व एक जीबन पद्धति है जिसका प्रमुख हथियार है सरवधर्मसम्भाव। हिन्दुत्व का एकमात्र उदेश्य मानवजीबन को लोभ-लालच, राग-द्वेश, बाजारबाद से दूर रख कर आत्मबल के सहारे शुख-शांति, भाईचारे के मार्ग पर आगे बढ़ाना है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिन्दुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए कभी किसी पर हमला नहीं किया गया पर ये भी उतना ही सत्य है कि जिसने भी मानव मूल्यों को खतरे मे डाला है उसको कभी बख्शा भी नहीं गया है चाहे बो किसी भी संप्रदाय से सबन्ध रखता हो।
आज भारत में ईसाई व मुसलिम आतंकवादियों की समर्थक सेकुलर सोच ने भारत के समक्ष एक नई चुनौती पैदा की है। ब्यापारबाद से प्रभावित इस सेकुलर सोच का एकमात्र उदेश्य मानव मुल्यों को नष्ट कर एक ऐसा समाज निर्मित करना है जो अचार व्यबहार में पशुतुल्य हो।
आओ जरा इस सेकुलर सोच के विचार का विशलेशण करें कि ये सेकुलरवादी जिस व्यवस्था की बकालत कर रहे हैं वो मानव जीवन को खतरे में डालती है या फिर मानव मुल्यों को बढ़ाबा देती है।
सेकुलर सोच को मानने बाले अपने आप को माडर्न कहते हैं।अपने माडर्न होने की सबसे बड़ी पहचान बताते हैं कम से कम कपड़े पहनना।इन्हें कपड़े न डालने में भी कोई बुराई नहीं दिखती। कुल मिलाकर ये कहते हैं कि जो जितने कम कपड़े पहनता है बो उतना अधिक माडर्न है। अब जरा बिचार करो कि क्या हमारे पशु कपड़े पहनते हैं ? नहीं न । हम कह सकते हैं कि अगर कपड़े न पहनना आधुनिकता है फिर तो हमारे पशु सबसे अधिक माडर्न है ! कुल मिलाकर ये सेकुलरताबादी मानव को पशु बनाने पर उतारू हैं क्योंकि समाज में कपड़े पहन कर विचरण करना मानव की पहचान है और नंगे रहना पशु की। ये सेकुलरतावादी जिस तरह नंगेपन को बढ़ाबा दे रहे हैं उससे से तो यही प्रतीत होता है कि इन्हें पशुतुल्य जीबन जीने में ज्यादा रूची है बजाय मानव जीबन जीने के ।
रह-रहकर एक विषय जो इन सेकुलरतावादियों ने बार-बार उठाया है वो है एक ही गोत्र या एक ही गांव में शादी की नई परंम्परा स्थापित करना। जो भी भारत से परिचित है वो ये अच्छी तरह जानता है कि भारत गांव में बसता है। गांव में बसने बाले भारत के अपने रिति-रिबाज है अपनी परम्परांयें हैं अधिकतर परम्परांयें वैज्ञानिक व तर्कसंगत है । इन्ही परम्परांओं में से एक परंम्परा है एक ही गांव या गोत्र में शादी न करने की। आज विज्ञान भी इस निषकर्श पर पहुंचा है कि मानव अपनी नजदीकी रिस्तेदारी में शादी न करे तो बच्चे स्वस्थ और बुद्धिमान पैदा होंगे । हमारे ऋषियों-मुनियों या यूं कह लो पूर्बजों ने भी सात पीड़ियों तक एक गोत्र में शादी न करने का नियम बनाया जो कि मानव जीबन के हित में है व तर्कसंगत है।अगर गांव बाले इस नियम को मानने पर जोर देते हैं तो इन सेकुलरताबादियों के पेट में दर्द कयों पड़ता है ? वैसे भी ये होते कौन हैं समाज द्वारा अपने सदस्यों की भलाई के लिए बनाय गए नियमों का विरोध करने बाले। वैसे भी लोकतन्त्र का तकाजा यही है कि जिसके साथ बहुमत है वही सत्य है।
इन सेकुलरतावादियों की जानकारी के लिए हम बता दें कि अधिकतर गांव में, गांव का हर लड़का गांव की हर लड़की को बहन की तरह मानता है। मां-बहन, बाप-बेटी के रिस्तों की बजह से ही गांव की कोई भी लड़की या महिला अपने आप को असुरक्षित महसूस नहीं करती है।आजादी से जीबन जीने में समर्थ होती है कहीं भी आ-जा सकती है खेल सकती है। हो सकता है ये भाई बहन की बात सेकुलरता बादियों को समझ न आये। बैसे भी अगर आप पशुओं के किसी गांव में चले जांयें ओर उन्हें ये बात समझायें तो उनको भी ये बात समझ नहीं आयेगी। क्योंकि ये भाई-बहन का रिस्ता सिर्फ मानव जीबन का अमुल्य गहना है न कि पशुओं के जीबन का ।
अभी हाल ही में पब संस्कृति की बात चली तो भी इस सेकुलर गिरोह ने ब्यभिचार और नशेबाजी के अड्डे बन चुके पबों का विरोध करने बालों का असंसदीय भाषा में विरोध किया। हम ये जानना चाहते हैं कि पबों में ऐसा क्या है जो उनका समर्थन किया जाये। कौन माता-पिता चांहेंगे कि उनके बच्चे नशा करें व शादी से पहले गैरों के साथ एसी जगहों पर जांयें जो कि ब्याभिचार के लिए बदनाम हो चुकी हैं।बैसे भी यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि भारत में इस पब संस्कृति के पांब पसार लेने के बाद भारत का हाल भी उस अमेरिका की तरह होगा जहां लगभग हर स्कूल के बाहर प्रसूती गृह की जरूरत पड़ती है। कौन नहीं जानता कि बच्चा गिराने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकशान लड़की को ही उठाना पड़ता है। फिर पब संस्कृति के विरोधियों को महिलाविरोधी प्रचारित करना कहां तक ठीक है । लेकिन इन सेकुलरतावादियों की पशुतुल्य सोच इस बात को अच्छी तरह समझती है कि भारतीय संस्कृति को नष्ट किए बिना इनकी दुकान लम्बे समय तक नहीं चल सकती। आज ये तो एक प्रचलन सा बनता जा रहा है कि नबालिग व निर्धन लड़कीयों को बहला फुसलाकर प्यार का झांसा देकर अपनी बासना की पूर्ती करने के बाद सारी जिंदगी दर-दर की ठोकरें खाने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है। कुल मिलाकर इस पब संस्कृति में अगर किसी का सबसे अधिक नुकशान है तो लड़कियों का । अतः महिलाओं की भलाई के लिए पब संस्कृति को जड़-मूल से समाप्त किया जाना अतयन्त आवश्यक है।इस संस्कृति का समर्थन सिर्फ वो लोग कर सकते हैं जो या तो ब्याभिचारी हैं या फिर नशेबाज। कौन नहीं जानता कि ये सेकुलरताबादी घर में अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते हैं व पबों में जाकर गरीब लड़कीयों के शोषण की भूमिका त्यार करते हैं। कुल मिलाकर ये पब संस्कृति महिलाओं को कई तरह से नुकशान पहुंचाती है।
इसी सेकुलर सोच का गुलाम हर ब्यक्ति चाहता है कि उसकी महिला मित्र हो, जो हर जगह उसके साथ घूमे व विना शादी के उसकी बासना की पूर्ति करती रहे ।जरा इन सेकुलरताबादियों से पूछो कि क्या वो अपनी मां-बहन-बेटी-बहू या पत्नी को पुरूष मित्र के साथ वो सब करने की छूट देगें जो ये अपनी महिला मित्र के साथ करना चाहते हैं। सेकुलरता बादियों के बारे में तो बो ही बता सकते हैं पर अधिकतर भारतीय ऐसा करना तो दूर सोचना भी पाप मानते हैं। फिर महिला मित्र आयेगी कहां से क्योंकि कोई भी लड़की या महिला किसी न किसी की तो मां-बहन-बेटी-बहू या पत्नी होगी। कुल मिलाकर इस सोच का समर्थन सिर्फ पशुतुल्य जीबन के शौकीन ही कर सकते हैं मानवजीबन में विश्वास करने बाले भारतीय नहीं।
इन तथाकथकथित सेकुलरों को ये समझना चाहिए कि निजी जीबन में कौन क्या पहन रहा है इससे हमारा कोई बास्ता नहीं लेकिन जब समाज की बात आती है तो हर किसी को सामाजिक मर्यादायों का पालन करना चाहिए।जो सामाजिक मर्यादाओं का पालन नहीं कर सकते उन्हें उन देशों में चले जाना चाहिए जहां मानव मूल्यों की जगह पशु मूल्यों ने ले ली है।क्योंकि जिस तरह ये सेकुलर गिरोह लगातार मानव मूल्यों का विरोध कर पशु संस्कृति का निर्माण करने पर जोर दे रहा है वो आगे चल कर मानव जीवन को ही खतरे में डाल सकती है।
मानव जीवन की सबसे बड़ी खासियत है आने बाली पीड़ी को सभ्य संस्कार व अचार व्यवहार का पालन करने के लिए प्रेरित करना। बच्चों के लिए एक ऐसा बाताबरण देना जिसमें उनका चहुंमुखी विकास समभव हो सके। इस चहुंमुखी विकास का सबसे बड़ा अधार उपलब्ध करबाते हैं बच्चों के माता-पिता ।
ये सेकुलरतावादी जिस तरह से माता-पिता के अधिकारों पर बार-बार सवाल उठाकर बच्चों को माता-पिता पर विश्वास न करने के लिए उकसा रहे हैं । माता-पिता को बच्चों के शत्रु के रूप में प्रस्तुत करने का षडयन्त्र रच रहें। माता-पिता की छवी को लगातार खराब करने का दुस्साहस कर रहे हैं। इनका ये षडयन्त्र पूरे मानव जीबन को खतरे में डाल देगा।क्योंकि अगर बच्चों का माता-पिता के उपर ही भरोसा न रहेगा तो फिर बो किसी पर भी भरोसा नहीं करेंगे। परिणामस्वरूप बच्चे किसी की बात नहीं मानेंगे और अपना बंटाधार कर लेंगे।
भारतीय समाज में जिस विषय पर इन सेकुलरताबादियों ने सबसे बड़ा बखेड़ा खड़ा किया है वो है वासनापूर्ति करने के तरीकों पर भारतीय समाज द्वारा बनाय गए मर्यादित नियम।इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले प्रेम और ब्याभिचार में अन्तर करना परमावस्यक है।
प्यार मानव के लिए भगवान द्वारा दिया गया सबसे बड़ा बरदान है ।प्यार के विना किसी भी रिस्ते की कल्पना करना अस्मभव है। अगर हम ये कहें कि प्यार के विना मानव जीबन की कल्पना भी नहीं की जा सकती तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्यार ही वो सूत्र है जिसने सदियों से भारतीय समाज को मुस्लिमों और ईसाईयों के हिंसक हमलों के बाबजूद शांति के मार्ग से भटकने नहीं दिया है। ये प्यार और आस्था ही है जो आज भी हिन्दु समाज को भौतिकबाद व बजारू सोच से बचाकर सुखमय और प्रेममय जीबन जीने को प्रेरित कर रही है। भारतीय जीबन पद्धति में माता-पिता-पुत्र-पुत्री जैसे सब रिस्तों का अधार ही प्यार है।
सेकुलर सोच ने सैक्स को प्यार का नाम देकर प्यार के महत्व को जो ठेश पहुंचाई है उसे शब्दों में ब्यक्त करना अस्मभव नहीं तो कम से कम मुस्किल जरूर है।सैक्स विल्कुल ब्यक्तिगत विषय है लेकिन सेकुरतावादियों ने सैक्स का ही बजारीकरण कर दिया ।सैक्स को भारत में सैक्स के नाम से बेचना मुश्किल था इसलिए इन दुष्टों ने सैक्स को प्यार का नाम देकर बेचने का षडयन्त्र रचा ।परिणामस्वरूप ये सैक्स बेचने में तो कामयाब हो गए लेकिन इनके कुकर्मों ने अलौकिकता के प्रतीक प्रेम को बदनाम कर दिया।
अगर आप ध्यान से इन सेकुसरतावादियों के क्रियाकलाप को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये दुष्ट मनुष्य को विलकुल बैसे ही खुलमखुला सैक्स करते देखना चाहते हैं जैसे पशुओं को करते देखा जा सकता है मतलब कुलमिलाकर ये मनब को पशु बनाकर ही दम लेंगे। लेकिन हम दाबे के साथ कह सकते हैं कि भारतीय समाज ऐसी पशुप्रवृति की पैरवी करने बाले दुष्टों को न कभी स्वीकार करेगा न इनके षडयन्त्रों को सफल होने देगा।
ये सेकुलतावादी कहते हैं कि सैक्स करेंगे, लेकिन जिसके साथ सैक्स करेंगे जरूरी नहीं उसी से सादी भी की जाए।बस यही है समस्या की जड़ ।ये अपनी बासना की पूर्ति को प्यार का नाम देते हैं और जिससे ये प्यार करते हैं उसके साथ जीवन जीने से मना कर देते हैं। कौन नहीं जानता कि मानव जिससे प्यार करता है उसके साथ वो हरपल रहना चाहता है और जिसके साथ वो हर पल रहना चाहता है उसके साथ जीवन भर रहने में आपति क्यों ? अब आप खुद सोचो कि जो लोग प्यार करने का दावा कर रहे हैं क्या वो वाक्य ही प्यार कर रहे हैं या अपनी बासना की पूर्ति करने के लिए प्यार के नाम का सहारा ले रहे हैं !
अब आप सोचेंगे कि वो प्यार कर रहे हैं या सैक्स, हमें क्या समस्या है, हमें कोई समस्या नहीं। लेकिन समस्या तब हो रही है जब समाचार चैनलों पर समाचारों की जगह ब्यभिचार परोसा जा रहा है। कला और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के नाम पर चल रही फिल्मी दुनिया में भी जमकर पशुप्रवृति को परोसा जा रहा है। सामाजिक नियमों का पालन करने बालों के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया जा रहा है । पशु-तुल्य कर्म करने बालों और ऐसे कर्म का समर्थन करने बालों को आदर्श के रूप में पेश करने की कोशिश की जा रही है।
एक साधारण सी बात यह है कि बच्चे का जन्म होने के बाद के 25 वर्ष तक बच्चे का शारीरिक व बौद्धिक विकाश होता है ये भारतीय जीवन दर्शन का आधारभूत पहलू रहा है अब तो विज्ञान ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है कि मानव के शारीरिक विकाश को 22 वर्ष लगते हैं ।जिन अंगो का विकाश 22 वर्ष की आयु में पूरा होता है उन्हें ताकतबर होने के लिए अगर अगले तीन वर्ष का समय और दे दिया जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कुलमिलाकर भारतीय दर्शनशास्त्र व विज्ञान दोनों ही ये स्वीकार करते हैं कि 25 वर्ष की आयु तक मानव शरीर का विकाश पूरा होता है।मानव जीवन के पहले 25 वर्ष मानव को शारीरिक विकाश व ज्ञानार्जन के साथ-साथ अपनी सारी जिन्दगी सुखचैन से जीने के लिए दो वक्त की रोटी का प्रबन्ध करना होता है।
अब ये सेकुलर गिरोह क्या चाह रहा है कि बच्चा पढ़ाई-लिखाई शारीरिक विकाश व दो वक्त की रोटी का प्रबन्ध करने के प्रयत्न छोड़ कर इनके बताए रास्ते पर चलते हुए सिर्फ सैक्स पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करे। अब इस मूर्खों के सेकुलर गिरोह को कौन समझाए कि अगर बच्चा 25 वर्ष तक सैक्स न भी करे तो भी अगले 25 वर्ष सैक्स करने के लिए काफी हैं लेकिन अगर इन 25 वर्षो में यदि वो पढ़ाई-लिखाई,प्रशिक्षण न करे तो अगले 25 बर्षों में ये सब सम्भव नहीं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बच्चे को चाहिए कि वो शुरू के 25 वर्षों में सैक्स वगैरह के सब टांटे छोड़कर सिर्फ अपने कैरियर पर ध्यान केन्द्रित करे ताकि आने वाली जिन्दगी के 25 वर्षों में वो आन्नद से जी सके।रही बात इन सेकुलरतावादियों की तो ये सेकुलरतावादी पिछले जमाने के राक्षसों का आधुनिक नाम है इनसे सचेत रहना अतिआवश्यक है क्योंकि मानव को सदमार्ग से भटकाना ही इन राक्षसों का मूल उद्देश्य था है और रहेगा।
एक तरफ ये सेकुलरतावादी मानव को खुले सैक्स के सिए उकसा रहे हैं दूसरी तरफ लोगों द्वारा अपनी बहुमूल्य कमाई से टैक्स में दिए गय धन में से ऐडस रोकने के नाम पर अरबों रूपय खर्च कर रहे हैं ।अब इनको कौन समझाये कि लोगों को भारतीय जीवन मूल्य अपनाने के लिए प्रेरित करने व भारतीय जीवन मूल्यों का प्रचार-प्रसार ही सैक्स सबन्धी संक्रामक रोगों का सुक्ष्म, सरल व विश्वसनीय उपाय है। वैसे भी ऐडस जैसी वीमारी का विकास ही इन सेकुलरतावादियों द्वारा जानवरों से सैक्स करने के परिणामस्वरूप हुआ है।अरे मूर्खो मानवता को इतना भयानक रोग देने के बाद भी तुम लोग पागलों की तरह खुले सैक्स की बात कर रहे हो।
अभी ऐडस का कोई विश्वसनीय उपाय मानव ढूंढ नहीं पाया है और इन सेकुलरतावादियों ने ऐडस के खुले प्रसार के लिए होमोसैक्स की बात करना शुरू कर दिया है। हम मानते हैं कि होमोसैक्स मानसिक रोग है और ऐसे रोगियों को दवाई व मनोविज्ञानिक उचार की अत्यन्त आवश्यकता है ये कहते हैं कि होमोसैक्स सेकुलरता वादियों की जरूरत है व मनोविज्ञानिक वीमारी नहीं है।इनका कहना है कि होमोसैकस भी सैक्स की तरह ही प्राकृतिक है।हम इनको बताना चाहते हैं कि सैक्स का मूल उद्देश्य प्रजनन है जिसका एकमात्र रास्ता है पति-पत्नी के बीच सैक्स सबन्ध । अगर होमोसैक्स प्राकृतिक है तो ये सेकुलरताबादी होमोसैक्स से बच्चा पैदा करके दिखा दें हम भी मान लेंगे कि जो ये मूर्ख कह रहे हैं वो सत्य है।परन्तु सच्चाई यही है कि होमोसैक्स मनोवैज्ञानिक विमारी है इसके रोगियों को उपचार उपलब्ध करवाकर प्राकृतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना ही हमारा कर्तब्य है न कि होमोसैक्स का समर्थन कर उसे बढ़ाबा देना।
बास्तब में सेकुलरताबादी गिरोह हर वक्त अपना सारा ध्यान मानवमूल्यों को तोड़ने पर इसलिए भी केन्द्रित करते हैं क्योंकि ये मनोरोगों के शिकार हो चुके हैं ।जब इनका सामना आम सभ्य इनसान से होता है तो इनके अन्दर हीन भावना पैदा होती है। इस हीन भाबना से मुक्ति पाने के लिए ये सारे समाज को ही कटघरे में खड़ा करने का असम्भव प्रयास करते हैं। अपनी मनोवैज्ञानिक विमारियों का प्रचार-प्रसार कर अपने जैसे मानसिक रोगियों की संख्याबढ़ाकर अपने नये शिकार तयार करते हैं कुलमिलाकर हम कहसकते हैं कि सेकुलरताबादी वो दुष्ट हैं जिनका शरीर देखने में तो मानव जैसा दिखता है पर इनका दिमाग राक्षसों की तरह काम करता है ।क्योंकि वेसमझ से वेसमझ व्यक्ति भी इस बात को अच्छी तरह जानता है कि कहीं अज्ञानबश या धोखे से भी हम किसी बुरी आदत का शिकार हो जांयें तो हमें इस वुरी आदत को अपने आप समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।अगर हम इस बुरी आदत को समाप्त न भी कर पांयें ते हमें कम से कम इसका प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए।
भारत गांवों में बसता है यहां हर जगह पुलिस उपलब्ध करबाना किसी के बस की बात नहीं।अभी तो इन सेकुलरताबादियों का असर कुछ गिने-चुने सहरी क्षेत्रों में ही हुआ है जहां से हर रोज बालात्कार ,छेड़-छाड़,आत्महत्या व सैक्स के लिए घरबार,मां-बाप,पति-पत्नी सब छोड़कर भागने के समाचार आम बात हो गई है। ये सेकुलर सोच अभी कुछ क्षेत्रों तक सीमित होने के बाबजूद न जाने कितने घर उजाड़ चुकी है कितने कत्ल करवा चुकी है कितने ही बच्चों को तवाह और बर्वाद कर चुकी है लाखों बच्चे इस सेकुलर सोच का शिकार होकर नशे के आदी होकर अपने निजी जीवन व परिवार की खुशियों को आग लगा चुके हैं। कुछ पल के लिए कल्पना करो कि ये सेकुलर सोच अगर सारे भारत में फैल जाए तो हिंसा, नसा और ब्याभिचार किस हद तक बढ़ जायेगा।
परिणामस्वरूप न मानव बचेगा न मानव जीवन, चारों तरफ सिर्फ राक्षस नजर आयेंगे। हर तरफ हिंसा का बोलबाला होगा ।मां-बहन-बेटी नाम का कोई रिस्ता न बचेगा।हर गली, हर मुहल्ला , हर घर वेश्यवृति का अड्डा नजर आयगा।जिस तरह हम आज गली, मुहले,चौराहे पर कुतों को सैक्स करते देखते हैं इसी तरह ये सेकुलरताबादी हर गली मुहले चौराहे पर खुलम-खुला सैक्स करते नजर आयेंगे। पाठशालाओं में मानव मूल्यों की जगह सैक्स के शूत्र पढ़ाये जायेंगे।अध्यापक इन शूत्रों के परैक्टीकल करबाते हुए ब्यस्त नजर आयेंगे। न कोई माता नकोई पिता नकोई बच्चा न कोई धर्म सब एक समान एक जैसे सब के सब धर्मनिर्पेक्ष बोले तो राक्षस। जब शरीर सैक्स करने में असमर्थ होगा तो ये नशा कर सैक्स करने की कोशिश करेंगे ।धीरे-धीरे ये नशे के आदी हो जायेंगे ।नशे के लिए पैसा जुटाने के लिए एक दूसरे का खून करेंगे।मां-बहन-बेटी को बेचेंगे।सब रिस्ते टूटेंगे। जब नशे के बाबजूद ये नपुंसक हो जायेंगे तो फिर ये अपने सहयोगी पर तेजाब डालकर उसे जलाते नजर आयेंगे।अंत में ये जिन्दगी से हताश होकर आत्महत्या का मार्ग अपनायेंगे।
हम तो बस इतना ही कहेंगे कि इन सैकुलतावादियों को रोकना अत्यन्त आवश्यक है।अगर इन्हें आज न रोका गया तो इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा क्योंकि ये किसी भी रूप में तालिवानों से अधिक खतरनाक हैं और तालिबान का ही बदला हुआ स्वरूप हैं। अभी इनकी ताकत कम है इसलिए ये फिल्मों,धाराबाहिकों ,समाचारपत्रों व समाचार चैनलों के माध्यम से अपनी सोच का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।कल यदि इनकी शंख्या बढ़ गयी तो यो लोग सभ्य समाज को तहस-नहस कर देंगे।
सेकुलरतावादियों की इस पाश्विक सोच का सबसे बुरा असर गरीबों व निम्न मध्य बर्ग के बच्चों पर पड़ रहा है।ये बच्चे ऐसे परिबारों से सबन्ध रखते हैं जो दो बक्त की रोटी के लिए मोहताज हैं। इन सेकुलरताबादियों के दुस्प्रचार का शिकार होकर ये बच्चे अपनी आजीविका का प्रबन्ध करने के प्रयत्न करने के बजाय सैक्स व नशा करने के लिए दर-दर की ठोकरें खाते नजर आते हैं।
सेकुलरताबादियों की ये भ्रमित सोच न इन बच्चों का ध्यान पढ़ाई में लगने देती है न किसी काम धन्धे में।न इन बच्चों को अपने मां-बाप की समाजिक स्थिति की चिन्ता होती है न आर्थिक स्थिति की। क्योंकि माता-पिता अपने बच्चों को बुरी आदतों से दूर रखने के लिए डांट-फटकार से लेकर पिटाई तक हर तरह के प्रयत्न करते हैं इसलिए इन बच्चों को सेकुलरताबादियों के बताए अनुसार अपने शत्रु नजर आते हैं।
ये बच्चे इस दुस्प्रचार का शिकार होकर अपने माता-पिता से दूर होते चले जाते हैं।ये बच्चे जाने-अनजाने नशा माफियों के चुंगल में फंस जाते हैं क्योंकि ये नशामाफिया इन बच्चों को न केबल नशा उपलब्ध करबाता है बल्कि सेकुलरताबादी विचारों का प्रयोग कर ये समझाने में भी कामयाब हो जाता है कि नशा और ब्यभिचार ही जिन्दगी के असली मायने हैं।
जब तक इन बच्चों को ये समझ आता है कि ये आधुनिकता के चक्कर में पढ़कर अपना जीबन तबाह कर रहे हैं तब तक इन बच्चों के पास बचाने के लिए बचा ही कुछ नहीं होता है।लड़कियां कोठे पर पहुंचाई जा चुकी होती हैं व लड़के नशेबाज बन चुके होते हैं कमोबेश मजबूरी में यही इनकी नियती बन जाती है।
फिर ये बच्चे कभी सरकार को कोशते नजर आते हैं तो कभी समाज तो कभी माता-पिता को। परन्तु बास्तब में अपनी बरबादी के लिए ये बच्चे खुद ही जिम्मेबार होते हैं क्योंकि सीधे या टैलीविजन व पत्रिकाओं के माध्यम से सेकुलरताबादियों की फूड़ सोच को अपनाकर अपनी जिन्दगी का बेड़ागर्क ये बच्चे अपने आप करते हैं।
आगे चलकर यही बच्चे सेकुलरताबादी,नक्सलबादी व माओबादी बनते हैं । यही बच्चे इन सेकुलरताबादियों का थिंकटैंक बनते हैं । यही बच्चे फिर समाचार चैनलों में बैठकर माता-पिता जैसे पबित्र रिस्तों को बदनाम करते नजर आते हैं।अब आप खुद समझ सकते हैं कि क्यों ये सेकुलरताबादी हर वक्त देश-समाज,मां-बाप व भारतीय संस्कृति को कोशते नजर आते हैं।

Saturday, December 24, 2011

गांधी का अहं


भारतीय स्‍वतंत्रता के इतिहास में एक ऐसा समय भी आया जब गांधी जी को अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आने लगा था। गांधी जी को एहसास होने लगा था कि अगर अब प्रतिरोध नही किया गया तो, “गांधी” से भी बड़ा कोई नाम सामने आ सकता है। जो स्‍वतंत्रता की लड़ाई “गांधी” नाम की धूरी पर लड़ा जा रहा था, वह युद्ध कहीं किसी और के नाम से प्रारम्‍भ न हो जाये। वह धूरी गांधी जी को नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस के रूप में स्‍पष्‍ट दिखाई दे रहा था। यह एक ऐसा नाम था जो गांधी जी को ज्‍य़ादा उभरता हुआ दिखाई दे रहा था। देश की सामान्‍य जनता सुभाष बाबू में अपना भावी नेता देख रही थी। सुभाष बाबू की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगनी बढ़ रही थी। जो परिस्थितियॉं गांधी जी ने अपने अरमानों को पूरा करने के‍ लिये तैयार की वह सुभाष चन्‍द्र बोस के सक्रिय रूप से समाने आने पर मिट्टी में मिलती दिख रही थी। गांधीजी को डर था कि जिस प्रकार यह व्‍यक्ति अपने प्रभावों में वृद्धि कर रहा है वह गांधी और नेहरू के प्रभाव को भारतीय परिदृश्य से खत्‍म कर सकता है। इन दोनों की भूमिका सामान्य स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भांति होने जा रही थी। गांधी और नेहरू की कुटिल बुद्धि तथा अंग्रेजों की चतुराई को यह कदापि सुखद न था। इस भावी परिणाम से भयभीत हो नेता जी को न केवल कांग्रेस से दूर किया गया बल्कि समाज में फैल रहे उनके नाम को समाप्‍त करने का प्रयास किया गया। यह व्‍यवहार केवल नेता जी के साथ ही नही हर उस स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ किया गया जो गांधी जी के अनर्गल प्रलापों का विरोधी था और उनकी चाटुकारिता करना पंसद नही करता था तथा देश की आज़ादी के लिये जिसके मन में स्‍पष्‍ट विचार थे।

गांधी और सुभाष का स्‍वतंत्रता संग्राम में आने में एक समानता थी कि दोनों को ही इसकी प्रेरणा विदेश में प्राप्‍त हुई। किन्‍तु दोनों की प्रेरणाश्रोत में काफी अन्‍तर था। गांधी जी को इसकी प्रेरणा तब मिली जब दक्षिण आफ्रीका में अंग्रेजो द्वारा लात मार कर ट्रेन से उतार दिया गया, और गांधी जी को लगा कि मै एक कोट पैंट पहने व्‍यक्ति के साथ यह कैसा व्‍यवहार किया जा रहा है? अंग्रेजों द्वारा लात मारने घटना गांधी जी को महान बनाने में सर्वप्रमुख थी। अगर गांधी जी के जीवन में यह घटना न घटित हुई होती तो वह न तो स्‍वतंत्रता के प्रति को ललक होती, और न ही आज राष्‍ट्रपिता का तमका लिये न बैठे होते, न ही उनकी गांधीगीरी अस्‍तित्‍व में हो।

वही सुभाष चन्‍द्र बोस इग्लैन्‍ड में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service) की परीक्षा के दौरान देश में घट रहे जलियावाला बाग काण्‍ड, रोलट एक्‍ट, तथा काग्रेस के द्वारा इन घटनाओं के परिपेक्ष में असहयोग आंदोलन जैसी घटनाओं प्रभावित हो उन्‍होने स्‍वतंत्रता संग्राम में आना उचित समझा। उनके जह़ान में देश के प्रति प्रेम और इसकी स्‍वतंत्रता के भाव का संचार हो गया। उन्‍होने भारतीय प्रशासनिक परीक्षा चौथे स्‍थान पर रह कर पास की थी। ऊँचा रैंक था, ऊँचा वेतन और किसी राजा से भी बढ़कर मानसम्‍मान एवं सुख सुविधाऐं उन्‍हें सहज प्राप्‍त थी। सुभाष बाबू किसी अग्रेंज ने छुआ तक नही था। किन्‍तु भारत माँ की करूण पुकार ने उन्‍हे देश भक्ति के लिसे प्रेरित किया। उन्‍होने समस्‍त सुख सुविधाओं से त्‍यागपत्र दे दिया। त्‍यागपत्र में कहा-

मै नही समझता कि कोई व्‍यक्ति अंग्रेजी राज के प्रति निष्‍ठावान भी रहे तथा अपने देश की मन, आत्मा तथा ईमानदारी से सेवा करें, ऐसा संभव नही।

नेताजी विदेश से लौटते ही देश की सेवा में लग गये और जब 1925 ई. को कलकत्‍ता नगर‍ निगम में स्‍वाराज दल को बहुमत मिला तो उन्‍होने निगम के प्रमुख के पद पर रहते हुऐ अनेक महत्‍वपूर्ण काम किये।

1928 मे जब कलकक्‍ता में भारत के लिये स्‍वशासी राज्य पद की मांग के मुख्‍य प्रस्‍ताव को महात्‍मा गांधी ने प्रस्‍तावित किया। तो सुभाष बाबू ने उसमें एक संशोधन प्रस्‍तुत किया, जिसमें पूर्ण स्‍वाराज की मांग की गई। गांधीजी पूर्ण स्‍वाराज रूपी संसोधन से काफी खिन्न हुए, उन्‍होने धमकी दिया कि यदि संशोधित प्रस्‍ताव पारित हुआ तो वे सभा से बाहर चले जायेगें। गांधी जी के समर्थकों ने इसे गांधी जी की प्रतिष्‍ठा से जोड़ दिया, क्‍योकि अगर गांधी की हार होती है तो निश्चित रूप से समथकों की महत्‍वकांक्षाओं को झटका लगता, क्‍योकि गांधी के बिना वे अपंग़ थे। सर्मथकों की न कोई सोच थी और न ही सामान्‍य जनों के विचारों से उनका कोई सरोकार था। सिर्फ और सिर्फ महत्‍वकांक्षा ही उनके स्‍वतंत्रता संग्राम का आधार थी। यही उनके संग्राम सेनानी होने के कारण थे। गांधी जी की इस प्रतिष्‍ठा की लड़ाई में अंग्रेज सरकार की पौबारा हो रही थी। सुभाष बाबू का संशोधित प्रस्‍ताव 973 के मुकाबले 1350 मतो से गिर गया। गांधी की आंधी के आगे सुभाष बाबू को 973 वोट प्राप्‍त होना प्राप्‍त होना एक महत्‍व पूर्ण घटना थी। यहॉं पर गांधी जी जी का स्‍वा राष्‍ट्र से बड़ा हो गया। गांधी जी के अहं के आगे उन्ही का सत्‍य, आहिंसा, और आर्शीवचन पाखंड साबित हुआ और जिस लाठी सहारे वह चलते थे वही लाठी काग्रेसियों के गुंडई प्रमुख अस्‍त्र बन गई। कांग्रेसियों द्वारा गांधी जी के नाम को अस्‍त्र बना अपना मनमाना काम करवाया, और इस कु-कृत्‍य में गांधी जी पूर्ण सहयोगी रहे। इसका फायदा मिला सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी सामराज्‍य को।

गांधी का ब्रह्मचर्य और स्‍त्री प्रसंग


नेहरू के विभिन्‍न स्‍त्रियों से सम्‍बन्‍धो की चर्चा तो हमेशा होती ही रही है किन्‍तु अभी गांधी जी के स्‍त्रियों के के सम्‍बन्‍ध पर मौन प्रश्‍न विद्यमान है। गांधी जी ने अपनी पुस्‍तक सत्‍य के प्रयोग में अपने बारे में जो कुछ लिखा है उसमें कितना सही है, यह गांधी से अच्‍छा कौन जान सकता है? गांधी जी के जीवन के सम्‍बन्‍ध में अभी तक इतना ही जाना जा सका है जितना कि नवजीवन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। आज गांधी की वास्‍तविक स्थिति हम अनभिज्ञ है, बहुत से बातों में गांधी को समझ पाना कठिन है। गांधी की नज़रों में गीता माता है, पर वे गीता के हर श्‍लोक से बंधे नही थे, वह हिन्‍दू धर्म को तो मानते थे किन्‍तु मंदिर जाना अपने लिये गलत मानते थे, वे निहायत आस्तिक थे किन्‍तु भगवान सत्‍य से बड़ा या भिन्‍न हो सकता है उन्‍हे इसका सदेह था ठीक इसी प्रकार ब्रह्मचर्य उनका आदर्श रहा, लेकिन औरत के साथ सोना और उलंग होकर सोना उनके लिये स्‍वाभाविक बन गया था।

गांधी के सत्‍य के प्रयोगों में ब्रह्मचर्य भी प्रयोग जैसा ही था, विद्वानों का कथन है कि गांधी जी अपने इस प्रयोग को लेकर अपने कई सहयोगियों से चर्चा और पत्रचार द्वारा बहस भी की। एक पुस्‍तक में एक घटना का उल्‍लेख किया जाता है - पद्मजा नायडू (सरोजनी नाडयू की पुत्री) ने लिखा है कि गांधी जी उन्‍हे अकसर चिट्ठी लिखा करते थे ( पता नही गांधी जी और कितनी औरतो को चिट्ठी लिखा करते थे :-) ), एक हफ्ते में पद्मजा के पास गांधी जी की दो तीन चिट्ठियाँ आती है, पद्मजा की बहन लीला मणि कहती है कि बुड्डा (माफ करे, गांधी के लिये यही शब्‍द वहाँ लिखा था, एक बार मैने बुड्डे के लिये बुड्डा शब्‍द प्रयोग किया था तो कुछ लोग भड़क गये थे, बुड्डे को बुड्डा क्‍यो बोला) जरूर तुमसे प्‍यार करता होगा, नही तो ऐसी व्‍यस्‍ता में तुमको चिट्ठी लिखने का समय कैसे निकल लेता है ?

लीला मंणि की कही गई बातो को पद्मजा गांधी जी को लिख भेजती है, कि लीलामणि ऐसा कहती है। गांधी जी का उत्‍तर आता है। '' लीलामणि सही ही कहती है, मै तुमसे प्रेम करता हूँ। लीलामणि को प्रेम का अनुभव नही, जो प्रेम करता है उसे समय मिल ही जाता है।'' पद्मजा नायडू की बात से पता चलता है कि गांधी जी की औरतो के प्रति तीव्र आसक्ति थी, यौन सम्‍बन्‍धो के बारे में वे ज्‍यादा सचेत थे, अपनी आसक्ति के अनुभव के कारण उन्हे पाप समझने लगे। पाप की चेतना से ब्रह्मचर्य के प्रयो तक उनमें एक उर्ध्‍वमुखी विकास है । इस सारे प्रयोगो के दौरान वे औरत से युक्‍त रहे मुक्‍त नही। गांधी का पुरूषत्‍व अपरिमेय था, वे स्‍वयं औरत, हिजड़ा और माँ बनने को तैयार थे, यह उनकी तीवता का ही लक्षण था। इसी तीव्रता के कारण गांधी अपने यौन सम्‍बन्‍धो बहुतआयामी बनाने की सृजनशीलता गांधी में थी। वो मनु गांधी की माँ भी बने और उसके साथ सोये भी।

गांधी सत्‍य के प्रयोग के लिये जाने जाते है। उनके प्रयोग के परिणाम आये भी आये होगा और बुरे भी। हमेशा प्रयोगों के लिये कामजोरो का ही शोषण होता है- इसी क्रम में चूहा, मेढ़क आदि मारे जाते है। गांधी ने अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग जो अन्‍यों पर किये होगे वे कौन है और उन पर क्‍या बीती होगी, यह प्रश्‍न आज भी अनुत्‍तरित है। गांधी की दया सिर्फ स्‍वयं तक सीमित रही, वह भिखरियों से नफरत करके है, उनके प्रति उनकी तनिक भी सहनुभूति नही दिखती है ये बो गांधी जिसे भारत के तत्‍कालीन परिस्थित से अच्‍छा ज्ञान रहा होगा। गांधी के इस रूप से गांधी से क्रर इस दुनिया में कौन हो सकता है, जो पुरूष हो कर माँ बनना चाहता है।

साबरमती के सन्त के अनोखे कमाल..



दे दी हमें बरबादी चली कैसी चतुर चाल?
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

उन्नीस सौ इक्किस में असहयोग का फरमान,
गान्धी ने किया जारी तो हिन्दू औ मुसलमान.
घर से निकल पड़े थे हथेली पे लिये जान,
बाइस में चौरीचौरा में भड़के कई किसान.

थाने को दिया फूँक तो गान्धी हुए बेहाल,
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

गान्धी ने किया रद्द असहयोग का ऐलान,
यह देख भड़क उट्ठे कई लाख नौजवान,
बिस्मिल ने लिखा इसपे-ये कैसा है महात्मा!
अंग्रेजों से डरती है सदा जिसकी आत्मा.

निकला जो इश्तहार वो सचमुच था बेमिसाल,
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

पैसे की जरूरत थी बड़े काम के लिये,
लोगों की जरूरत थी इन्तजाम के लिये,
बिस्मिल ने नौजवान इकट्ठे कई किये,
छप्पन जिलों में संगठक तैनात कर दिये.

फिर लूट लिया एक दिन सरकार का ही माल,
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

चालीस गिरफ्तार हुए जेल में गये,
कुछ भेदिये भी बन के इसी खेल में गये,
पेशी हुई तो जज से कहा मेल में गये,
हम भी हुजूर चढ़ के उसी रेल में गये.

उनमें बनारसी भी था गान्धी का यक दलाल,
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

उसने किया अप्रूव ये सरकारी खजाना,
बिस्मिल ने ही लूटा है वो डाकू है पुराना,
गर छोड़ दिया उसको तो रोयेगा ज़माना,
फाँसी लगा के ख़त्म करो उसका फ़साना.

वरना वो मचायेगा दुबारा वही बबाल.
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

बिस्मिल के साथ तीन और दार पर चढ़े,
जज्वा ये उनका देख नौजवान सब बढे,
सांडर्सका वध करके भगतसिंह निकल पड़े,
बम फोड़ने असेम्बली की ओर चल पड़े.

बम फोड़ के पर्चों को हवा में दिया उछाल.
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

इस सबकी सजा मौत भगत सिंह को मिली,
जनता ने बहुत चाहा पे फाँसी नहीं टली,
इरविन से हुआ पैक्ट तो चर्चा वहाँ चली,
गान्धी ने कहा दे दो अभी देर ना भली.

वरना ये कराँची में उठायेंगे फिर सवाल.
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

जब हरिपुरा चुनाव में गान्धी को मिली मात,
दोबारा से त्रिपुरी में हुई फिर ये करामात,
इस पर सवाल कार्यसमिति में ये उठाया,
गान्धी ने कहा फिर से इसे किसने जिताया?

या तो इसे निकालो या फिर दो मुझे निकाल.
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

इस पर सुभाष कांग्रेस से निकल गये,
जिन्दा मशाल बन के अपने आप जल गये,
बदकिस्मती से जंग में जापान गया हार,
मारे गये सुभाष ये करवा के दुष्प्रचार,

नेहरू के लिये कर दिया अम्नो-अमन बहाल.
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

आखिर में जब अंग्रेज गये घर से निकाले,
था ये सवाल कौन सियासत को सम्हाले,
जिन्ना की जिद थी मुल्क करो उनके हवाले,
उस ओर जवाहर के थे अन्दाज निराले.

बँटवारा करके मुल्क में नफरत का बुना जाल.
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल.

वैदिक कर्मकाण्ड के सोलह संस्कार


वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार निम्न सोलह संस्कार होते हैं:
  1. गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।
  2. पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।
  3. सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।
  4. जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।
  5. नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नामप्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।
  6. निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।
  7. अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदानकिया जाने वाला जन्म केपश्चात् छठवें माह में किया जाने वालासप्तम संस्कार।
  8. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।
  9. विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।
  10. कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।
  11. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।
  12. वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।
  13. केशान्त संस्कारः गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।
  14. समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।
  15. पाणिग्रहण संस्कारःपति-पत् नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।
  16. अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।
    उपरोक्त सोलह संस्कारों में आजकल नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (मुण्डन), यज्ञोपवीत (उपनयन), पाणिग्रहण और अन्त्येष्टि संस्कार ही चलन में बाकी रह गये हैं।
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सरस्वती नदी: उद्गम स्थल तथा विलुप्त होने के कारण



सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक मंत्र (१०.७५) में सरस्वती नदी को 'यमुना के पूर्व' और 'सतलुज के पश्चिम' में बहती हुई बताया गया है।[1] उत्तर वैदिक ग्रंथों, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ बताया गया है, महाभारतमें भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन आता है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं.[2] महाभारत, वायुपुराण अदि में सरस्वती के विभिन्न पुत्रों के नाम और उनसे जुड़े मिथक प्राप्त होते हैं. महाभारत के शल्य-पर्व, शांति-पर्व, या वायुपुराण में सरस्वती नदी और दधीचि ऋषि के पुत्र सम्बन्धी मिथक थोड़े थोड़े अंतरों से मिलते हैं उन्हें संस्कृत महाकवि बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थ 'हर्षचरित' में विस्तार दे दिया है. वह लिखते हें- " एक बार बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण ऋषिगण सरस्वती का क्षेत्र त्याग कर इधर-उधर हो गए,परन्तु माता के आदेश पर सरस्वती-पुत्र, सारस्वतेय वहां से कहीं नहीं गया. फिर सुकाल होने पर जब तक वे ऋषि वापस लौटे तो वे सब वेद आदि भूल चुके थे. उनके आग्रह का मान रखते हुए सारस्वतेय ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया और पुनः श्रुतियों का पाठ करवाया. अश्वघोष ने अपने 'बुद्धचरित'काव्य में भी इसी कथा का वर्णन किया है. दसवीं सदी के जाने माने विद्वान राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' के तीसरे अध्याय में काव्य संबंधी एक मिथक दिया है कि जब पुत्र प्राप्ति की इच्छा से सरस्वती ने हिमालय पर तपस्या की तो ब्रह्मा ने प्रसन्न हो कर उसके लिए एक पुत्र की रचना की जिसका नाम था- काव्यपुरुष. काव्यपुरुष ने जन्म लेती ही माता सरस्वती की वंदना छंद वाणी में यों की- हे माता!में तेरा पुत्र काव्यपुरुष तेरी चरण वंदना करता हूँ जिसके द्वारा समूचा वाङ्मय अर्थरूप में परिवर्तित हो जाता है..."

ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों में दिये सरस्वती नदी के सन्दर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से राजस्थान होकर बहने वाली मौजूदा सूखी हुई घग्घर-हकरा नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी की एक मुख्य सहायक नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी। उस समय सतलुज तथा यमुना की कुछ धाराएं सरस्वती नदी में आ कर मिलती थीं. इसके अतिरिक्त दो अन्य लुप्त हुई नदियाँ दृष्टावदी और हिरण्यवती भी सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं ,लगभग १९०० ईसा पूर्व तक भूगर्भी बदलाव की वजह से यमुना, सतलुज ने अपना रास्ता बदल दिया तथा दृष्टावदी नदी के २६०० ईसा पूर्व सूख जाने के कारण सरस्वती नदी भी लुप्त हो गयी। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गयी है।वैदिक सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी। इसरो द्वारा किये गये शोध से पता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से होती हुई भूमिगत रूप में प्रवाहमान है।

महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री (बदरी(?) नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को ही लोग सरस्वती कह देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं और ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती रही थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। भारतीय पुरातत्व परिषद् के अनुसार सरस्वती का उद्गम उत्तरांचल में रूपण नाम के हिमनद (ग्लेशियर) से होता था। रूपण ग्लेशियर को अब सरस्वती ग्लेशियर भी कहा जाने लगा है। नैतवार में आकर यह हिमनद जल में परिवर्तित हो जाता था, फिर जलधार के रूप में आदि बद्री तक सरस्वती बहकर आती थी और आगे चली जाती थी।


वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया। वैदिक काल में एक और नदी दृषद्वती का वर्णन भी आता हैं। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से हो कर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया। ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी। जैसा ऊपर भी कहा जा चुका है, प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि भूगर्भीय यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।


सिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही बिंदुसर नामक सरोवर है, जो महाभारत का 'विनशन' हो सकता है। यह सरस्वती मुख्य सरस्वती ही की धारा जान पड़ती है। यह कच्छ में गिरती है, किंतु मार्ग में कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है।'सरस्वती' का अर्थ है- सरोवरों वाली नदी, जो इसके छोड़े हुए सरोवरों से सिद्ध होता है।
श्रीमद्भागवत "श्रीमद् भागवत (5,19,18)" में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है।"मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु" "मेघदूत पूर्वमेघ" में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है । "कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:" सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर 'सरस्वती' कहा जाने लगा। पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।

Wednesday, December 21, 2011

देश की लोकसभा कुत्तों के हवाले किसने करी?


The parliament has gone to the dogs. देश कि संसद की ज़िम्मेदारी होती है कानून पर बातचीत करना और अपनी सम्मति से पेश हुये बिलों को कानून का दर्जा देना. इस देश की जनता की ज़िम्मेदारी थी वहां ऐसे सज्जन और जागरुक व्यक्तियों को भेजना जो ज्यादा से ज्यादा बिलों को कानून बना पायें और हर मुद्दे पर सजगता से बहस करें. लेकिन लगता है जनता ने संसद को कुत्तों के हवाले कर दिया है.

संसद जब सत्र में होती है तो खबर यही आती है कि इसने उस पर भौंक दिया, उसने इसको काट लिया, एक ग्रुप ने मिलकर दूसरे को नोंच-खसोट दिया… शोर-शराबा… चिल्लम-पें… जूता-झपटी… भौं..भौं..

ताज़ा सर्वे के अनुसार संसद को सत्र के दौरान चलाने के लिये हर मिनट 26,000 रुपये का खर्च आता है. सत्र के दौरान सारे सदस्य हवाई जहाज़ों में लद-लदकर, अपने वीआपी बंगलों में रहकर, सरकारी लाल-बत्ती वाली गाड़ियों में भरकर एक दूसरे पर भौंकने-काटने आते हैं.

संसद में इतनी ज़ोर से भौंकने वाले … नेता यह भूल जाते हैं कि वह सिर्फ संसद के खर्च का ही हर्जा नहीं कर रहे, वह देश को चलाने, बेहतर बनाने के लिये ज़रूरी कानूनों के लागू करने में दिक्कतें पैदा कर रहे हैं. एक द्सरे को गाली देना, फिर उस बात पर अपने दोस्तों, चमचों, गुर्गों को इकट्ठा करके पिल पड़ना यह सब इन कुत्तों को इस लिये सुहा रहा है क्योंकि सब सरकारी खर्च पर होता है.

- 1952-1961 के बीच राज्यसभा में सालाना औसतन 90.5 बैठकें होती थीं जो अब (1995-2001) घट कर 71.3 रह गईं हैं, लेकिन कुत्तों का खर्चा बढ़ गया है.

- 1952-1961 के बीच सालाना 68 बिल पास होते थे जो अब 49.9 की औसत पर रहे गये हैं (1995-2001).

- 11वीं लोकसभा में कुल समय का 5.28 प्रतिशत भौंकने में बरबाद हुआ, 12वीं में 10.66 प्रतिशत, 13वीं में 18.95 प्रतिशत, 14वीं में 21 प्रतिशत! … मतलब हर बार जनता पहले से ज़्यादा कुत्ते चुनकर भेज रही है.

लेकिन यह कुत्ते भौकेंगे सरकारी खर्च पर!

2007 में प्रपोज़ल दिया गया कि अगर काम नहीं तो पैसा नहीं की तर्ज पर संसद में हंगामा करने वाले नेताओं की पगार व भत्ते रोक लिये जायें, लेकिन इस प्रपोज़ल को किसी भी राजनैतिक दल ने मंजूरी नहीं दी.

मतलब कुत्ते संसद में आयेंगे. भौंकेगे और सरकारी माल खा-खाकर और मोटे होकर आयेंगे और फिर भौंकेगे.

इस देश की संसद कुत्तों के हवाले किसने की? क्यों की?

इन कुत्तों से देश को बचाओ

हम अपनी भूमी को ‘सुजलाम-सुफलाम’ कहते हैं, लेकिन शायद इसकी नेता पैद करने की कूव्वत आज़ादी की लड़ाई में ही चुक गई. अब सिर्फ कुत्ते पैदा हो रहे हैं जिनमें से सबसे ज्यादा खतरनाक, भौंकेले कुत्ते हम संसद में चुन-चुनकर भेज रहे हैं.

कुत्तों को संसद में बार-बार भेजना हमारी ही गलती है, इसे सुधारने कोई और नहीं आयेगा कोशिश हमें ही करनी होगी.

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(इस लेख को पूरा लिखने के बाद महसूस हुआ कि मैंने गलत लिख दिया. इस तरह घटिया शब्द इस्तेमाल करके किसी को बेइज़्ज़त करना ठीक नहीं. नेताओं को कुत्ते कहना सही नहीं है. मुझे कोई हक नहीं है उन्हें गाली देने का.

कुत्ते तो जिसका खाते है, उसका साथ मरते दम तक पूरी वफादारी से निभाते हैं. नेता अपने देश तक को नहीं छोड़ते… कोई खदानों को लूट रहा है, कोई आइपीएल को, कोई फसलों को, कोई कम्युनिकेशन संपदा उद्योपतियों को बेच रहा है

नहीं… मुझसे गलती हुई. नेताओं को कुत्ता कहकर मैं कुत्तों को इस कदर बेइज़्ज़त कर गया. मुझे माफ कर देना कुत्तों! मैं शर्मिंदा हूं कि मैंने तुम्हें गाली दी.)

हमें इन नस्ल बिगाड़ो के समर्थन की आवश्यकता नहीं |


तथाकथित "'नस्ल बिगड़ सेकुलर बुधिजिवियो ""के समर्थन की क्या आवश्य्कता हे |
आज जिस प्रकार के हालत भारत ओर सारे विश्व में बन रहे हे उनमे सबसे विकट हालात में से एक भारत देश भी हे |हालाँकि उपरी तोर पर से देखने में सब कुछ अच्छा ओर चमकदार दिखाई दे रहा हे ,भारत दो अंको विकास दर को छू रहा हे ,मजबूत लोकतंत्र दिखाई दे रहा हे ,सेना मजबूत दिखाई दे रही हे ,करोड़पति अरबपति बढ़ रहे हे ,निवेशक आकर्षित हो रहे हे |
लेकिन ये केवल २०% लोगो के लिए ही हे उन्ही की तस्वीरे पेश की जारही हे |बाकि सब गल्लम ग्प्प्प चल रहा हे ,कोई नहीं कह सकता की बाकि ८०% लोगो के लिए ऊंट किस करवट बेठे ?
इन्ही २०% लोगो में से वो बुद्धिजीवी वर्ग भी आता हे जिन्हें अपनी आमदनी कमाने के लिए कुछ भी जद्दोजेहाद नहीं करनी पडी हे |,नेता के रूप० में खाऊ गिरी ,दलाली ,रियल स्टेट , प्रोपर्टी, ही प्रोफाइल टर्म्स ,तलवे चाट के विभिन्न विदेशी फंड के रूप में भीख खाऊ एन.जी.ओ दलाल ,अपनी बीबियो बहिन बेटियों को आगे कर के ,रिश्वतखोरी कर के ,गट्टर गंदगी में नहा के ,देशद्रोह कर के देश बेच के ,भांड गिरी कर के ,चमचा गिरी करके ,यानि किसी भी तरह पैसा कमाया जाये ,इस वर्ग का प्रमुख उद्देश्य हे |इस वर्ग में इस भावना का कोई महत्व नहीं की अपना धर्म देशप्रेम ,रास्ट्र प्रेम के जज्बे का क्या मतलब हे ?इनके लिए धर्म का मतलब अपनी और परिवार की भरपूर पेट पूजा और मंदिर में जा कर आना और दिखावा करना ही हे |आप पाएंगे की इस वर्ग में से कोई भी बाप अपनी ओलाद को सेना में नहीं भेजना चाहता हे |सेना में जितने भी जवान जाते हे वो सभी गरीब ,गाँवो के घरो से आते हे ,जिन्हें घर चलाने के लिए नोकरी की आवश्यकता होती हे |
मुख्त्या ये वर्ग दलाली ओर तलवा चट्टू के रूप में सत्ता संस्थानों के इतने करीब होता हे उनके महत्वपूर्ण निर्णय तय करने में प्रभावशाली भूमिका रखता हे |मिडिया को कुशल नट की तरह इस्तमाल करते हुवे सरकारों ओर आमजन पर अपना प्रभावशाली नियन्त्रण भी ये वर्ग रखता हे |
भारत में आजादी के बाद से ही कांग्रेस के राज में इस वर्ग को भरपूर फलने फूलने का अवसर मिलता लेकिन १९९२ के बाद मनमोहन जी की आर्थिक नीतियों ने इस वर्ग की आर्थिक आकंक्षवो के चार चाँद लगा दिए ,ओर ये वर्ग उतना ही भ्रस्ट ओर नीचे गिरता चला गया |इन्ही आकान्क्षावो ने नीचले तबके के सपनो के पंख लगा के उन्हें भी भ्रसटाचार की गट्टर गंगा में नहाने के लिए आमंत्रित लिया |
अब इसी तथाकथित सेकुलर और श्रेष्ठी कहलाने वाले ""नस्ल बिगाड़ "" हाईप्रोफाइल वर्ग ने बाकी सभी जनता को आर्थिक सामाजिक ,राजनितिक ,बोधिक ,शेक्षणिक ,सभी कारको और विषयों पर बंधक बना लिया हे |
बाकी बचे जो लोग सही और सच्ची भावना से रास्ट्र और धर्म के बारे में सोचते हे ,जो इन विषयों पर रास्ट्रवादी भावना का जन जन में प्रसार करना चाहते हे |जो लोग अपने धर्म के हास और उसके पतन से चिंतित होते हे |जो रास्ट्र और धर्म का हास और नुक्सान करने वाली शक्तियों का विरोध करना चाहते हो |वो लोग और वो संघटन्न भी इन्ही छद्दम सेकुलर रास्ट्र द्रोही ,धर्म द्रोही व्यक्तियों के भंवरजाल में फंस चूके हे |
भारत वर्ष में ये स्थिति आ चुकी हे की आज बात बात पर, हर रास्ट्र धर्म के पक्ष वाले मुद्दे पर ,कदम कदम पर रास्ट्रवादी संघटन और व्यक्ती इन छद्दम सेकुलर नस्ल बिगाड़ लोगो से समर्थन की अपेक्षा लगाये रखते हे ,जो की रात भर साथ सो जाये तो भी नहीं देने वाले हे

|आज चाहे भारत के अभिन्न अंग कश्मीर की बात हो ,चाहे कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में सेना के अधिकारों की बात हो .चाहे तिरस्कृत और बलात्कृत कश्मीर से निकाले गये कश्मीरी पंडितो की बात हो |चाहे भ्रसटाचार काले धन के मुद्दे पर बाबा रामदेव के आन्दोलन अभियान की बात हो ,और उस पर किया गया सरकारी वहशी तांडव हो या अन्ना दुआरा छेड़े गये आन्दोलन की बात हो ,भर्स्ट सरकार के नकटेपने और कमीनेपन का मुद्दा हो ,भले ही अपनी अस्मिता और सनातन धर्म के आधार तत्व रामसेतु का मुद्दा हो ,राममन्दिर जेसे आन्दोलन का मुद्दा हो ,भले ही साम्प्रदायिक निरूपण बिल का मुद्दा हो ,चाहे अमरनाथ यात्रा को पाखंड कह देने की हिम्मत किसी ने कर ली हो ?चाहे भारत में अधिसंख्य हिंदुवो की अस्मिता से बलातकार होता हो ,उनकी मुख्य धार्मिक यात्रावो पर २० २० गुना टेक्स बढा दिया गया हो ???..............______________________?
क्या होता हे इन मुद्दों पर ?आम हिन्दू और बाकी अपने को रास्ट्रवादी कहलाने वाले संघटन्न क्या करते हे सब से पहले इस सभी बातो और मुद्दों पर ?
एक उम्मीद की ""हमारे ही देश के जाने पहचाने ,यंही की खा के उसी की बजाने वाले छद्दम सेकुलर नस्ल बिगाड़ हमारा समर्थन करेंगे ?बस यंही मात खा जाते हे|जो लोग इन्ही बातो के लिए जाने जाते हे ,जिनका मूल धंधा ही धर्म विरोध और देश के खिलाफ काम करना हे और पेट भरना हे तो क्या उम्मीद लगा कर उन से समर्थन की उम्मीद लगा बैठते हे हम लोग ?
मिडिया भी उन्ही में से हे |फिर हम उन्हें लानत मानत भेजते हे बुरा भला कहते हे ,उनकी भर्त्सना करते हे |मिडिया को पक्षपाती कहते हे ,वो तो होगा ही पक्षपाती क्योकि उसे गुलामी करने के पेसे मिलते हे ,और इन्ही उपरी उल्लेखित २०% लोगो की नट विद्या से मिडिया चलता हे |ताजुब्ब की बात तो तब होती हे की अच्छी तरह से संघटित संघटन्न भी इनके फेर में पड़ कर इन्ही की पूंछ पकड़ने की कोशीश करते हे |आर .एस.एस विश्व का सब से बड़ा अनुशासित संघटन्न हे ,उसे प्रचार की भूख भी नहीं हे ,लेकिन वो अपनी मान्यताये और हिन्दू कल्याण की बात हिंदुवो में ही स्पष्ट रूप से नहीं रख पायेगा तो जाहीर हे हिंदुवो के खिलाफ काम करने वाली शक्तिया उन्हें जल्दी ही मानसिक रूप से बहका सकेगी |एक हद तक अपनी अपनी लाइन में चलना सही हे ,लेकिन कोई चुनोती दे तो फिर ,अपने धर्म रास्ट्र को गाली दे तो फिर ?क्या इन्हें पत नहीं हे की किस तरह हिन्दू देवी देवता और उनकी मन्य्तावो के खिलाफ विषवमन किया जा रहा हे ?क्या उनकी युवा काडर में इतना दम नहीं की ऐसे लोगो की
थोड़ी सर्विस कर दी जाये ग्रीस पानी .आयल पानी कर दिया जाये जिस से ये थोडा स्मूथ चले |
यंहा धन्यवाद देना चाहूँगा शिवसेना की स्पष्टता और दिलेरी को जिन्होंने प्रशांत भूषण की ""जंवारी ""करने वाले तीनो वीरो तेजेंद्र सिंह जी और उनके साथियों का खुल के अभिनन्दन किया हे जबकि किसी भी अन्य हिन्दू संघटनों और देशभक्ती रखने वाले लोगो ने बिलकुल आवाज नहीं उठाई !! उलटे एक अपराधिक चुप्पी साध ली की जेसे इन शेरो ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया हो ,श्री राम सेना तो साफ तोर पर गोल बोल गयी की हमारे आदमी ही नहीं थे ,होना ये चाहिए था की ये संघटन्न ऐसे वीर युवावो का अभिनन्दन करते उनकी होसला अफजाई करते ,उनके स्पष्ट और त्वरित नजरिये की सराहना करते ,लेकिन ये भी तो इन्ही छद्दम सेकुलरो के भंवर जाल में ही तो फंसे हुवे हे ,की छद्दम सेकुलर लोगो के सामने हम आँख नहीं मिला पाएंगे ,मीडिया नाराज हो जायेगा ,सेकुलरो अभिव्यक्ती की आजादी नाम का तूफ़ान उठा लेंगे |इसी भीरुता और छद्दम सेकुलरता के माथा देने के कारण आज आडवानी देश का प्रधान मंत्री बनने का सपना दिल में ही ले कर इस इस दुनिया से विदा हो जायेंगे |हमें अब ऐसे ही स्पष्ट नजरिये की आवश्यकता हे ,ज्यादा सीधे सच्चे हिन्दू बन के जीने की अवश्यकत नहीं हे ,ज्यादा जेंटल बन के रहने से फायदा कम नुकसान ही ज्यादा हुवा हे |हमें इन छद्दम सेकुलरो से अपने नम्बर बढवाने की कतई आवश्य्कता नहीं हे ,ना ही हमें इस बात की परवाह करनी हे की सो काल्ड सभ्य समाज हमे क्या कहेगा ?छद्दम सभ्य बनने के चक्कर में हम बहुत खो चूके हे ,इसी बात का फायदा उठा के हमारी कोई भी बजा के चला जाता हे |हमें अपने धर्म और रास्ट्र के मान अपमान पर खुला एवं स्पष्ट दृसटीकोण प्रस्तुत करना होगा |
हमें इन छद्म सेकुलर ""नस्ल बिगाड़ो " के समर्थन की कतई आवश्यकता नही हे ,ना ही हमें उम्मीद लगनी चाहिए के ये लोग कभी पक्ष में भी बोले |हमें आवश्यकता हे तेजेंद्र पाल जी जेसे नवयुवको की और जेसे को तेसा प्रदान करने वाली त्वरीत प्रतिक्रिया की |हमे उन छद्दम सेकुलर और रास्ट्रद्रोही धर्मद्रोही लोगो और उनके पालतू मिडिया को ऐसे ही जवाब देना हे जेसा तेजेंद्र पल जी ने दिया और अग्निवेश को गुजरात में एक महात्मा ने दिया |यदि किसी को अभिव्यक्ती की आजादी हे तो हमे भी हमारे गोरव प्रतीकों रास्ट्र और धर्म की रक्षा का अधिकार हे |कानून अपनी जगह हे ,यदि कोई किसी को गोली मारता हो तो खाने वाला ये सोच के निश्चिन्त नहीं हो जायेगा की कानून पाना काम करेगा .कानून तो काम करता रहेगा पहले जो अपना फर्ज बनता हे वो पूरा करेंगे |
जय हिंद वन्देमातरम

ब्रिटिश शासन में राजभक्ति पर दबाव - भाग दो /


’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ के संघर्ष में ’’नरमपंथी’’ के विरुद्ध ’’उग्रवादी’’

19 वीं शताब्दी के अंत के भारतीय विद्वानों को प्रभावित करने वाली राजनैतिक धाराओं पर राजभक्तों ने गहरी छाया डाली; तब भी, तेजी से खराब हो रही आर्थिक परिस्थितियों ने नए भारतीय बौद्धिक वर्ग ने उग्रसुधारवाद को प्रेरित किया था। अजितसिंह पंजाब में, बाल गंगाधर तिलक महाराष्ट्र् में, चिदम्बरम पिल्ले तामिलनाडू में, और विपिनचंद्र पाल बंगाल में ने नए राष्ट्र्वादी आंदोलन के कंेद्र स्थापित किए। और उन्हांेने भारतीय नेशनल कांग्रेस के पुराने नेतृत्व को उग्रसुधारवादी दिशा में मोड़ने के साहसिक परंतु अधिकतर असफल प्रयास किए। नए नेताओं में सबसे अधिक चहेते बाल गंगाधर तिलक थे, जन्म 1856-मृत्यु 1920।

मुस्लिम लीग द्वारा मुस्लिम विरोधी की तरह चित्रित, भारत में औपनिवेशिक शासकों एवं ब्रिटिश राजभक्तों द्वारा ’’उग्रवादी’’ की तरह कलंकित और कुछ इतिहासकारों द्वारा हिंदू पुनरूत्थानी जातिवादी कहे जाने वाले तिलक, वास्तव में, भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन की अगुवाई करने वाले ज्योति पुंजों में से एक थे। ’’स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’’ के अपने नारे के लिए प्रसिद्ध वे ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्राता के आहावकों में से भी एक थे। उनने ’’नरमपंथी’’ ताकतें जो इंडियन नेशनल कांग्रेस पर पिछली शताब्दी की शुरूआत से छायी रहीं थीं, के खिलाफ लम्बा और कभी कभी अकेले ही राजनैतिक संघर्ष किया।

1858 की पराजय के पश्चात् वासुदेव बलवंत फड़के के 1879 के विद्रोह के रूप में भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के लिए सबसे बड़ी चुनौती प्रगट हुई और पूना में उनके समर्थक तथा शिक्षार्थी में, युवा तिलक थे। चिपलूंकर, आगरकर और नामजोशी के साथ तिलक ने प्रारंभिक रूप से एक राष्ट्र्ीय साप्ताहिक - केशरी /1881/ को शुरू किया। किताबखाना प्रकाशक और भारतीय शिक्षण संस्था जैसे कि ’’दक्खिन एजूकेशन सोसायटी’’ /1884/ को स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया। राष्ट्र्ीय पुनरूत्थान के लिए सही प्रकार की शिक्षा को एक अतिआवश्यक तत्व की तरह तिलक और उनके साथियों ने देखा। इसी संलग्नता में दोनों, ज्योतिराव फुले /1827-1890/ और गोपालराव देशमुख में /1823-1892/ जो अपने ’’लोक हितवादी’’ के उपनाम से अधिक जाने गए थे, उक्त परंपरा आगे बढ़ी थी।

महाराष्ट्र् के 19 वीं शताब्दी के समाजवादी क्रांतिकारियों के अग्रणी पंक्ति में फुले और उनकी पत्नि सावित्राी बाई ने हिंदू समाज में जाति, लिंग और धर्म की समानता के आधार पर मूलभूत पुनर्गठन की वकालत की थी। फुले माली जाति के थे। वे ब्राहम्णवादी समाज की जो शूद्र जाति को हेय दृष्टि से देखते थे, अछूत जाति को स्कूल जाने से रोकते थे और जवान विधवाओं /खासकर ब्राहम्ण विधवाओं/ से जाति बहिष्कृतों जैसा व्यवहार करते थे, आलोचना में तीखे थे। लड़कियों के लिए स्कूल शुरू करने वालों में से एक थे फुले /1848/। फुले ने अछूतों के लिए पहली स्कूल की स्थापना 1851 में की थी, 1863 में जवान विधवाओं के लिए घर और अछूत महिलाओं के लिए कौटुम्बिक कुआं 1868 में शुरू करने में भी वे पहले थे। महाराष्ट्र् में उच्च जातियों से समाज सुधारक आये जैसे कि गोपालराव देशमुख जो यद्यपि चितपावन ब्राहम्ण थे पर ब्राहम्ण समाज के घोर आलोचक थे। वे शुरूआत में मध्यमवर्ग के सुधारवादी संगठनों एवं उनके कार्यकलापों के माध्यम से काम करते रहे जैसे प्रस्थान समाज एवं आर्य समाज के जातिवादी असमानता विरोधी संघर्ष में।

लेकिन तिलक के कुछ सहयोगी फुले और देशमुख /लोक हितवादी/ की तरफ अच्छा दृष्टिकोण नहीं रखते थे। फुले की आलोचना में खासकर चिपलूंकर तीखे थे। दूसरी ओर, तिलक सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता के लिए असहमत नहीं थे और वे बाल विवाह, जातिवाद और छुआछूत जैसी बुराईयों के विरोधी थे। बहुत वषों बाद /1918 में बंबई के एक सम्मेलन में/ उनने घोषणा की ’’यदि भगवान छुआछूत को स्वीकार करता होता तो मैं उसे भगवान स्वीकार नहीं करता।’’ तब भी, वे सामाजिक सुधारों को राजनैतिक संघर्ष के उपर रखने के विरोधी थे। वे यह विश्वास करते थे कि सामाजिक सुधार शनैः शनैः जनगण की चेतन विचारों के विकास के द्वारा आते रहना चाहिए बजाय विदेशी सरकार के वैधानिक अधिकार के। वे इस बात में दृढ़ विश्वास रखते थे कि देश जब तक राजनैतिक तौर पर स्वतंत्रा नहीं है, उसमें गुणात्मक सुधार संभव नहीं। वह नरमपंथी ’’सुधारकों’’ या राजभक्तों के खास आलोचक थे जो अपनी ही बातों पर अमल नहीं करते थे परंतु बारंबार समाज सुधारों का विरोधी कहकर उनको पीड़ा पहुंचाते थे।

चिपलूंकर के संकीर्ण धार्मिक पुनरूत्थानवादी ढांचे में और आगरकर जैसे मूलगामी सामाजिक सुधारों में वे अपने को संलग्न नहीं कर सके। अंततः 1888 में तिलक ने सहयोगियों सहित अपना रास्ता अलग कर लिया। केशरी के माध्यम से काम करते हुए /और बाद में ’’मराठा’’ भी/ उनने धीरे धीरे राष्ट्र्ीय शिक्षा के स्तंभों पर आधारित ज्यादा प्रखर राष्ट्र्ीय दृष्टिकोण पैदा कियाः ’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ की। भारतीय जनगण में राष्ट्र्ीय संदेश ले जाने वालों में से एक, उनने 1897 के दुर्भिक्ष के दौरान पश्चिमी महाराष्ट्र् के किसान और दस्तकार समुदायों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका ’’सार्वजनिक सभा’’ के अंतर्गत अदा की। 1905 तक, महाराष्ट्र् एवं बंगाल में आम प्रतिरोधक आंदोलन इस आहावन के साथ उठ खड़े हुए थे कि ब्रिटिश सामानों का उपयोग न किया जाये और भूमिकर एवं अन्य करों का भुगतान भी न किया जाये। 1905 और 1908 के बीच राष्ट्र्ीय आंदोलन गहन हुआ। कामगारों ने काम रोको और हड़तालों में हिस्सेदारी की, महिलाओं और विद्यार्थियों बहिष्कार आंदोलन से जुड़े और आयातित माल बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए। आम आदमियों ने भारी मात्रा में सभाओं और जुलूसों से जुड़ना प्रारंभ कर दिया।

देश पर ब्रिटिश शासन द्वारा लाये गये आर्थिक विनाश को जानते हुए भारत की विशाल जनता राष्ट्र्ीय आहवानों में उत्सुकतापूर्वक सहयोग कर रही थी। परंतु राष्ट्र्ीय आंदोलन दो मूलभूत विभिन्न धाराओं एवं प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व करते हुए तेजी से विभक्त हो रहा था। जबकि एक हिस्सा विदेशी शासन के अनेक नकारात्मक पहलुओं को जानते हुए, नाभी नाड़ी की तरह जुड़ा हुआ था और राजनैतिक परिवर्तनों के संघर्ष को रोकने का प्रयत्न करता था और दूसरा पक्ष ने सही रूप से ब्रिटिश शासन को भारतीयों के विनाश की तरह देखा और औपनिवेशिक शासन से पूरी तरह से स्वतंत्रा होने का नारा दिया।

नए और लगातार बढ़ते हुए लड़ाकू राष्ट्र्ीय आंदोलन की भावनाओं के सार को तिलक सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत करते रहे। वे कहते रहे कि ब्रिटिश शासन ने व्यापार को नष्ट किया, उद्योगों को ध्वस्त किया और जनता की योग्यतों एवं साहस को नष्ट कर दिया। तिलक ने मूल्यांकन किया कि ब्रिटिश शासन ने न जनता की राय का आदर किया, न उन्हें शिक्षा दी गई, न ही अधिकार। समृद्धि और संतोष के बिना भारतीय जनता तीन ’’द’’ सहती रही - दरिद्रता, दुर्भिक्ष और दोहन। उनने भारतीय जनता के लिए अपने हाथ में राजनैतिक सत्ता को लेने का एक मात्रा उपाय देखा जिसके बिना भारतीय उद्योग पनप नहीं सकते थे, देश के नवजवान शिक्षित नहीं हो सकते थे और जिसके बिना देश अपनी जनता के लिए न तो समाज सुधार और न ही भौतिक सुख प्राप्त कर सकता था। तिलक ने औपनिवेशिक शासन को भारत की उन्नति में भारी रोड़ा पाया एवं भारतीय जनता और ब्रिटिश आतातायियों के बीच के विरोधों को गैर समन्वयात्मक पाया।

1905 में कांग्रेस के अध्यक्ष गोखले जैसे ’’नरमपंथी,’’ भारत में ब्रिटिश उपनिवेशन कैसे ’’दुखद’’ था और ब्रिटेन को भारत का आर्थिक बहाव कैसे ’’भारतीय खून का रिसाव’’ था को जानते हुए भी ब्रिटिश शिक्षा पद्धति की प्रशंसा कर रहे थे। ब्रिटिश के उदारपंथी ’’सामाजिक सुधार’’, शासकीय ’’शांति और कानून’’ और आधुनिक सुविधायें जैसे रेलवे, डाक एवं तार और नए औद्योगिक उपकरण का वे बखान करते। इन सबने एक छोटे से भारतीय उच्च वर्ग को ही लाभ पहुंचाया। साम्राज्य इन प्रशंसकों की कतई परवाह नहीं करते दिखलाई पड़ते थे। उन्हें यह ध्यान ही नहीं आया कि स्वराज के अंतर्गत इस सब से कई गुना अधिक हम बड़े आसानी से प्राप्त कर सकते थे।

भारतीय सत्यता को तिलक और गोखले स्पष्ट तौर पर अलग अलग दो नजरियांे से देख रहे थे। सामान्य जनसमूह के नजरिये से ब्रिटिश शासन ने देश को कंगाल बना दिया, उसके लिए असहनीय दरिद्रता दी और भविष्य की कोई आशा शेष नहीं रह गई थी। तिलक के मूल्यांकन में कठोर सत्य झलकता था जैसा कि न केवल उत्पीड़ित और पददलित भारतीय जनगण ने अनुभव किया था बल्कि भारतीयों के अधिकांश ने भी अनुभव किया था। परंतु गोखले के उभयमुखी एवं चिंतनीय सरोकारों ने साम्राज्य की लूटों के हिस्सेदारों की स्थिति की झलक बतलाई। चिंताओं से उनकी स्थिति झलकती है परंतु कुछ घबराहट के साथ देखा था कि कैसे देश की बढ़ती हुई दरिद्रता ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ देगी। गोखले जैसे जनता के हितों के अनिच्छुक ’’नरमपंथी’’ ने अपनी शक्ति भर बढ़ते हुए राष्ट्र्ीय आंदोलन को रोका, यहां तक कि तिलक और उनके सहयोगियों को ’’अतिवादी’’ शब्द से कलंकित किया।

ब्रिटिश ने पूरे तौर से इस फूट का फायदा उठाया और नए राष्ट्र्ीय आंदोलन को कुचलने में अपने पूरे प्रशासनिक दबाव और सैन्यशक्ति को लगाना शुरू किया। मूलभूत परिवर्तनवादी झुकावों को खत्म करने की लड़ाई में मुस्लिम लीग जैसी सामप्रदायिक ताकतों को भी लगा दिया गया था। /नीचे देखिए/ भारतीय राष्ट्र्ीय आंदोलन की दिशा निर्धारण के लिए 1905-1908 के वर्ष अत्यंत कठिन थे। भारतीय जनगण तिलक और उनके समर्थक की ओर दिशा निर्देशन के लिए ताक रहे थे। परंतु देश के चहुं ओर विद्यार्थी, कामगार और भारतीय किसान वर्ग के सीधे विरोध में उच्च वर्ग अपनी ब्रिटिश राजभक्ति को दुहराता रहा था।

पंजाब में ध्रुवीकरण खासकर तेज था। किसान वर्ग में बहिष्कार आंदोलन गहरे तक पैठ चुका था और ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों को कुलियों और गरीब किसानों से संभार तंत्राीय मदद मिलना कठिन हो गया। ब्रिटिश भूमिकर नीति के विरोध में उठ खड़े सिख और जाट किसान मजदूरों का मजबूती से राजनीतिकरण होने लगा। पंजाब में तिलक के करीबी सहयोगी अजितसिंह ने पंजाब की जनता से धर्मनिरपेक्ष अपील ब्रिटिश के विरूद्ध उठ खड़े होने के लिए की थीः ’’हिंदू भाई, मुस्लिम भाई, सिपाही भाई - हम सब एक हैं। सरकार तो हमारे सामने धूल भी नहीं है ... तुम्हारे पास डरने के लिए क्या है ? ... हमारी संख्या विशाल है। सच है उनके पास बंदूकें हैं परंतु हमारे पास मुट्ठियां हैं ... प्लेग से और अन्य बीमारियों से मर रहे हो तब ज्यादा अच्छा होगा मातृभूमि के लिए तुम अपने आप को बलिदान कर दो। हमारी ताकत एकता में है ...’’। रावलपिंडी अप्रेल 21, 1907 के एक भाषण से उद्धृत।

मई 1, 1907 को रावलपिंडी में ब्रिटिश शासन को एक जन असंतोष की स्वस्फूर्त लहर ने हिला दिया जब खौलते हुए हड़ताली मजदूरों से लैस भीड़ सड़कों पर निकल आई, गुजरते हुए ब्रिटिशों पर कीचड़ और पत्थर फेंकते हुए, सरकारी दफतरों, क्रिस्चियन मिशीनरियों के घरों, ब्रिटिश उद्यमों और व्यापारिक संस्थानों पर आक्रमण करते हुए। यद्यपि ब्रिटिश सेनाओं के बड़े समूह ने इस विद्रोह को प्रभावी ढंग से कुचल दिया था, पर उसने औपनिवेशिक प्रशासन को इतना हिला दिया कि पंजाब से औपनिवेशिक और सैनिक अधिकारियों के परिवार को शीघ्रता से हटाने और लार्ड किचनर, ब्रिटिश सेना के कमांडर इन चीफ के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए वह पर्याप्त कारण था। अमृतसर और लाहौर में ऐसे ही विद्राहों को निर्दयता से औपनिवेशिक पुलिस और सैन्य टुकड़ियों ने कुचल दिया। अजितसिंह और लाला लाजपत राय को सरसरे तौर पर बिना किसी संज्ञान या अपील के बर्मा भेज दिया गया। दूसरे देशभक्तों की गिरफ्तारी हुई और उत्पीड़न हुआ और पंजाब में आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी गई थी।

1908 में इसी पैमाने के विद्रोह दक्षिण में त्रिवेंद्रम, युनेलवेली और तुनिकोरिन में उठ खड़े हुए। त्रिवेंद्रम में पुलिस चैकियों पर आक्रमण हुए, जेल से कैदी निकाल दिए गए और दमनकारी औपनिवेशिक राज्य के दफ्तरांे में आग लगा दी गई। तिलक के महत्वपूर्ण साथी चिदम्बरम पिल्ले पर मुकदमा चला। उनने राष्ट्र्ीय उद्देशों को त्यागने से मना कर दिया और उन्हें आजीवन कैद की सजा दी गई।

रूसी वाणिज्यक अधिकारी चिरकिन ने मई 28,1907 की अपनी रिपोर्ट में भविष्यवक्ता सदृश्य लिखाः ’’बंगाल की अशांति की अपेक्षा पंजाब का विद्रोह अपने चरित्रा में ज्यादा खतरनाक है ... इस विद्रोह ने समूचे भारत को उकसा दिया है।’’ परंतु अन्य शक्तिशाली ताकतें इस मूलभूत ब्यार जो औपनिवेशिक शासन को उलटने की संभावनाओं से पूर्ण थी को पीछे ठेलने और रोकने का काम कर रहीं थीं। बंगाल के जमीनदार जिनने बंगाल भंग के विरूद्ध आंदोलन किया था ने सरकार के प्रति अपनी राजभक्ति की घोषणा की। महाराजाओं ने ब्रिटिश की मदद के लिए अपने सशस्त्रा कर्मचारी अर्पित किए और कुछ ने, जैसे जम्मू और कश्मीर के महाराजा, अपनी ओर से कथित ’’उग्रवादियों’’ के विरूद्ध दमनकारी कदम उठाने शुरू कर दिये।

दादा भाई नेरोजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1906 में तिलक समूह के द्वारा स्वदेशी और राष्ट्र्ीय शिक्षा के लिए रखीं गईं मांगों को स्वीकार किया परंतु अपनी पहले की स्थिति में लौट आयी और सूरत के 1907 के अधिवेेशन में संघर्ष को ’’संवैधानिक ढंग’’ में सीमित करने का निर्णय लिया। ’’स्वराज’’ और ’’स्वशासन’’ की पुनव्र्याख्या उपनिवेशन के अर्थ में की गई और औपनिवेशिक शक्ति से लड़ने की अपेक्षा प्रभावशाली ’’सुधारों’’ में सहयोग का कांग्रेस ने निर्णय लिया। राष्ट्र्ीय स्वतंत्राता आंदोलन के सबसे अधिक विख्यात नेता तिलक के चुनाव का प्रस्ताव लाला लाजपत राय के चुनाव के रूप में एक समझौतापूर्ण प्रस्ताव के रूप में गिर गया। ’’नरमपंथी’’ धड़े की जीत पूर्ण रूपेण हुई। गोखले का ’’नरमपंथी राष्ट्र्वाद’’ जो राजभक्ति का दूसरा चेहरा था, तिलक से जुड़ी सभी जन शक्तियों के निकाले जाने के लिए सफल हुआ और कांग्रेस को राजभक्ति के रास्ते पर वापिस ला दिया।

तिलक और उनके समर्थक इस तरह से कांग्रेस के जकड़न भरे पिंजड़े से बाहर एकत्रित होने के लिए फिर से मजबूर किये गए और उन्हांेने ब्रिटिश के विरुद्ध जोरदार संघर्ष करना जारी रखा। परंतु 1908 जुलाई के राष्ट्र्ीय परिदृष्य से तिलक के गंभीर साथियों के अधिकांश को हराने के बाद, तिलक को खुदबखुद सजा के लिए लाया गया। सजा सुनाने के लिए अंग्रेज बहुमत ने भारतीय जूरियों को आॅउट वोट किया और तिलक को छै वर्ष के लिए देश निष्कासन की सजा सुनाई गई। इससे आम जनता का प्रतिशोध भड़क गया जो भारतीय शहरों को घेरे में लेते हुए 1,00,000 कामगारों की विशाल हड़ताल और बंबई में आम हड़ताल में परिणित हुआ। तिलक की सजा को साधारण कैद की सजा में बदलना पड़ा। परंतु भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन के लिए यह गहरा धक्का साबित हुआ था।

1914 तक कांग्रेस इतनी विकृत हो गई कि उसके सदस्यों का बहुमत युवा मोहनदास करमचंद गांधी को चेतावनी देने में विफल रहा जब प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश युद्ध संबंधी क्रियाकलापों के लिए स्वयंसेवक की खोज का वे कार्यक्रम चला रहे थे। जो भारतीय जनगणों को ’’अपर्याप्त रूप से अहिंसक’’ होने के लिए बारंबार ताड़ना देता रहा था, 1914 में, उसे कोई खेद न था एक ऐसे युद्ध में बलिदानी मेमनों को लगा देने में जिसमें भारत का हित औपनिवेशिक स्वामियों की हार ही में होना चाहिए था। परंतु राजकोट काठियाबार राज्य के प्रधानमंत्राी के पुत्रा गांधी भारतीय महाराजाओं के नेतृत्व का अनुसरण कर रहे थे जैसे कि बीकानेर के महाराजा अपनी सेना को युद्ध में भेजने के लिए तत्पर थे। ऐसे कदमों से एक ओर शक्तिशाली यूरोपियन साम्राज्यवादी ताकतों को मदद मिलती थी और दूसरी ओर उनके विरूद्ध संघर्षशील ताकतें कमजोर होतीं थीं।

वास्तव में ये गोखले थे जिनसे युवा गांधी प्रेरणा पाते थे, न कि तिलक से। परंतु अन्य दूसरों ने भारत के स्वतंत्राता आंदोलन केे नेतृत्व एवं निदेशन देने की उनकी योग्यता को देख लिया था। नेहरू ने कहा थाः ’’बाल गंगाधर तिलक नए युग के सही प्रतीक थे।’’ और माना कि ’’भारत में राजनैतिक जागरूक लोगों का विशाल बहुमत तिलक और उनके समर्थकों का अनुसरण करता था।’’ इसको सर वालेन्टाइन चिरोल, दी टाइम्स के विदेशी संपादक का भी वैसा ही मत था। उनने रेखांकित किया कि तिलक की सजा ने भारत को सबसे योग्य एवं दृढ़ नेता से महरूम किया। अपने विरोधाभासी और भिन्न धाराओं के बाबजूद संभवतया तिलक ही केवल समर्थ थे भारतीय राष्ट्र्ीय आंदोलन को संगठन, एकता और नेतृत्व देने में। एन.सी.केलकर, जीवनी लेखक एवं तिलक के अनुयायी ने ऐसी भावनाओं को गुंजायमान किया।

भाग एक: भारतीय कुलीन वर्ग एवं प्रारंभिक कांग्रेस में राजभक्त दलाल।

नोटस्ः

राष्ट्र्ीय आंदोलन के लिए मुस्लिम लीग जैसे सामप्रदायिक संगठनों की उग्रता का विशेष विवरण और अंग्रेजी भाषी प्रेस के लिए आॅल इंडिया मुस्लिम लीग की दक्खिन प्राविंशियल आरग्नाईजेशन का निम्नलिखित प्रस्ताव टाईम्स आॅफ इंडिया में छपा थाः

’’यह बैठक अपने दृढ़ विश्वास को लेखबद्ध करती है कि ’’ ब्रिटिश शासन के रख रखाव के साथ न केवल नामधारी सर्वोच्चता वरन् प्रशासन की हर शाखा में फैलने वाली ताकत भारत में एक नितांत और सर्वोपरि आवश्यकता है। वह, इसलिए अपनी ताकतवर निंदा और नफरत, प्राविंस में हुए हाल के कुछ राजनैतिक सिरफिरों के प्रयासों जो लेखों और भाषणों में उस सर्वोच्चता को कमजोर बनाते तथा इस देश में यूरोपियन और भारतीयों के बीच जातीय बैरभाव फैलाते हंै के लिए खेद व्यक्त करती है। आगे वह अपने सामथ्र्य के साधनों के द्वारा राजद्रोह की भावना के उठान और बढत़ को और दक्खिन में हिज मेजिस्टी की प्रजा के सभी वर्गों के बीच अवज्ञा खासकर इस्लाम के अनुनायियों के बीच रोकने का निर्णय करती है। ’’ टाईम्स आॅफ इंडिया में प्रकाशित, अगस्त 15, 1908।

1893 के पहले तक तिलक ने हिंदू और मुस्लिमों के बीच तनाव भड़काने की औपनिवेशिक प्रशासन के अधिकारियों की प्रवृति को महसूस किया था। उनके अनुसार इन सब बदमाशियों के तल में लार्ड डफरिन की ’’बांटो और राज करो’’ की नीति थी।

1906 में लार्ड कर्जन ने बंगाल को मनमाने ढंग से बांट दिया था और हिंदू और मुस्लिमों के बीच खूनी झगड़ों के लिए मुस्लिम लीग पर विश्वास किया था। पूर्वी बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से निबटने के लिए विशेष ’’स्वजाति’’ संगठनों को मुस्लिम लीग की आधीनस्थता में बनाया गया था। पुलिस के संरक्षण में उनके सदस्य स्वदेशी कार्यकत्र्ताओं को पीटा करते थे। कांग्रेसी नरमपंथी जैसे सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने भी पूर्वी बंगाल के हिंदू और मुसलमानों के बीच औपनिवेशिक प्रशासन के भ्रात-हत्यात्मक कलह को उकसाने वाली भूमिका को चिंहित किया था।

ब्रिटिश शासन में राजभक्ति पर दबाव - भाग एक


भाग एकः भारतीय कुलीन वर्ग एवं प्रारंभिक कांग्रेस में राजभक्त दलाल

ब्रिटिश शासित भारत के अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि उपनिवेशित भारत में अंग्रेजों की संख्या बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी तब भी, भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटिश विशाल और स्थिर राज्य को बनाये रखने में समर्थ रहे। वे भारत के प्राकृतिक स्त्रोत्ों का शोषण करते रहे और उसके नागरिकों की संपदा को अत्याधिक और अविवेकी करों द्वारा ढीठतापूर्वक खींचते रहे। ब्रिटिश को अधिकांशतः अपने शासन के दौरान कठिन चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा।

इसमें कोई शक नहीं कि मार पीट सहित शारीरिक हिंसा भारत में, ब्रिटिश साम्राज्य का खास तरीका था। उतने ही महत्व की उनकी राजनैतिक कूटनीतियां थीं। उनने देशज राजाओं की आपसी प्रतिस्पद्र्धा और जाति, धर्म, वर्ण तथा अन्य विभाजक राजभक्ति से उत्पन्न विखंडों का बुरी तरह से फायदा उठाया। ब्रिटिश ने न केवल भारत के महाराजाओं और दूसरे सामंतकालीन पतित कुलीनवर्ग के लोगों की राजभक्ति और मौन सहमति इक्ट्ठी की वरन् ब्रिटिश शिक्षित शहरी नए प्रभावशाली बौद्धिकवर्ग का भी समर्थन प्राप्त किया। उनकी राजभक्ति औपनिवेशिक साम्राज्य के प्रति सुनिश्चित थी खासकर तब जबकि राष्ट्र्ीय भावना और राष्ट्र्ीय धारायें 1858 की हार के बाद कमोवेश हिलोरें लेने लगीं थीं। साहूकार और जमीनदार विशेष तौर पर ब्रिटिश के सहयोगी थे और नया औद्योगिक वर्ग, यद्यपि ब्रिटिश नीतियों के विराधी थे, भी निश्चितरूप से अपनी पुराणपंथता के कारण उनका विरोध नहीं करते थे।

इस प्रकार से, भारत में ब्रिटिश राजभक्ति एक राजनैतिक फैशन बना जो या तो राष्ट्र्ीय ताकतों का सीधे तौर पर प्रतिरोध करता या फिर उनके प्रभाव और क्षमता को राजनैतिक संयम, अहिंसा और रणनीतिक रुकावट के नारों से छिन्नभिन्न करता। राजभक्त ताकतंे भारतीय जनता से धैर्य धारण करने, धीमी गति के राजनैतिक सुधारों के प्रति संतुष्ट रहने और स्वशासन से संबंधित छोटी छोटी रियायतों के लिए ब्रिटिश के प्रति कृतज्ञ होने के लिए बारंबार और जोशीले निवेदन करते थे। तिलक समान जो ब्रिटिश के विरूद्ध अधिक मूलभूत और संघर्षकारी तरीकों की मांग करते थे उन्हें ’’उग्रवादी’’ घोषित किया जाता और अवास्तविक तथा काल्पनिक विप्लववादी कहकर खारिज किया जाता।

भारतीय बुद्धिजीवी वर्गों जो बेचैन जनता की शक्ति से डरते थे, के बीच गहरी जड़ें जमा चुकी राजभक्ति, ब्रिटिश द्वारा शासित न केवल भारतीय सीमाओं में मजबूत राजनैतिक ताकत थी वरन् भारतीय राजाशाही पर भी गहरा दबाव रखती थी। उनके महत्व को भांपकर, ब्रिटिश प्रशासकों ने राजभक्त घटकों को शासन के स्थायित्व के लिए उनके योगदान के अनुसार पुरूष्कृत करते हुए, एकत्रित किया। 1857 के विद्रोह के बाद के दशकों में, राजभक्ति अनेक रूपों में उभरकर सामने आई - नरम और गरम, और राजभक्ति की सबसे अधिक राष्ट्र् विरोधी प्रवृतियों ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने अथवा कम करने के प्रयासों के विरोध में परकोटे की तरह से काम किया। इन तत्वों ने न केवल भारत से इंग्लेंड भेजे जाने वाले धन में ईमानदारी से सहयोग किया वरन् अपनी राजभक्ति के आक्रमणकारी प्रचार में, राष्ट्र्ीय धाराओं पर औपनिवेशिक हमलों के जोड़ीदार बने और आगे बढ़कर उन्हें हराया। राजभक्त तत्वों ने उनके प्रति भी कुप्रचार किया जो नरम थे और आवश्यक तौर पर विदेशी शासन से मेल खाते थे।
ऐसे राजभक्तों के ऐजेंट के आदर्शरूप सर सालार जंग, जन्म 1829, हैदराबाद की रियासत के 1853 में प्रधानमंत्राी थे, जिनने 1857 के सैन्य विद्रोह के बारे में बड़ी घृणापूर्वक लिखा और बोला और सफलतापूर्वक अरब के भाड़े के सैनिकों को ब्रिटिश रेसीडेंट, कर्नल डेविडसन, की ओर से दक्षिण राज्य में सैन्यद्रोह को रोकने के उद्देश से नौकरी में रखा। सैन्यद्रोह के नेताओं को गोली मार दी गई अथवा सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई। स्थानीय निवासियों जिन्हांेने सैन्यद्रोही सिपाहियों को बचाने का प्रयास किया उन्हें तोप के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया।

देश के अन्य स्थानों की तरह, 1857 के विद्रोह ने निजाम की रियासत, हैदराबाद में, आम जनता का अच्छा समर्थन पाया। वहां ब्रिटिश के विरूद्ध युद्ध का कोलाहल था। सालार जंग ने ब्रिटिश जनरल थार्नहिल की प्रशंसा में स्वीकार किया कि हैदराबाद ब्रिटिश के प्रति असंतोष से उद्वेलित था। उसने ब्रिटिश उपस्थिति और औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध पैदा हो गए गंभीर खतरे को भांपकर शीघ्रता से कार्यवाही की और उन चुनौतियांे से बचाव किया। विद्रोहियों के दबाने के उसके समयोचित एवं बर्बर कार्य खास महत्व के थे और सर रिचर्ड टेम्पिल के द्वारा प्रशंसित हुए। उन कार्यों को ब्रिटिश सरकार के लिए ’’अमूल्यवान’’ कहा गया था।

1857 के स्वतंत्राता संग्राम के विरूद्ध सालार जंग अकेला ही नहीं था। ब्रिटिश के विरूद्ध जब इंदौर और मउ के सैन्यदल 1857 के संग्राम से जुड़े और विद्रोह किया तब होल्कर राजा ने ब्रिटिश से सैन्यदलों के व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और ब्रिटिश राजभक्ति की पुनः पुष्टि की। टोंक, कोटा, ग्वालियर, भोपाल और भरतपुर के सैन्यदलों ने भी विद्रोह किये परंतु वहां के शासक ब्रिटिश के पक्के राजभक्त बने रहे।

नागपुर की पूर्व रानी बकाबाई ने अपनी राज्य सीमा के संभाव्य विद्रोहियों को कठोर कार्यवाहियां करने की चेतावनी दी जबकि भोंसले राजाओं को ब्रिटिश ने प्रताड़ित किया था। नागपुर को अधिकार में लेने के बाद, ब्रिटिश ने लगभग समूचे राज्यकोष को अपने अधिकार में ले लिया था। बहुमूल्य धातुओं और रत्न जवाहरातों और सांस्कृतिक महत्व की वस्तुओं से भरे 136 बोरे ब्रिटिश तिजोड़ी में भेज दिए गए थे। महल के पशुओं की नीलामी कर दी गई थी। भोंसले रानियों के व्यक्तिगत आभूषणों को कलकत्ता में नीलाम किया गया। जो भी हो, रानी बकाबाई और दूसरे वरिष्ठ कुलीनों को पेंशन दी गई और इस तरह उनकी राजभक्ति को खरीदा गया था।

मेरठ, दिल्ली, लखनउ, कानपुर, सागर और झांसी जैसे दूसरे शहरों के विद्रोहियों से प्रेरणा पाकर नागपुर के पास तकली की अस्थाई टुकड़ी ने विद्रोह किया परंतु अन्य टुकड़ियां निष्क्रिय रहीं जिससे ब्रिटिश ने विद्रोहियों को कुचलने का आसान मौका पाया। अस्थाई टुकड़ी के दिलदारखान, इनायतउल्ला खान, विलायत खान और नवाब कादिर खान को फांसी दी गई।

यद्यपि सामान्यतः नागपुर की जनता विद्रोहियों की पक्षधर रही परंतु ब्रिटिश के राजभक्त कुलीनों का भारी प्रभाव रहा और उपनिवेशन के प्रति भारत के अनेक राजाओं के इस लगाव ने ब्रिटिश को मौका दिया कि अपने विश्वास को पुनः प्राप्त करें और सुसंगठित हों और अंततः उनने 1857 में खोईं हुईं सीमाएं प्राप्त कर लीं।

यहां तक कि भारत का प्रथम स्वतंत्राता संग्राम जब दुखद और कटु अंत तक पहुंच गया, कुलीन राज्यों जिनने ब्रिटिश का पक्ष लिया था तटस्थ बने रहे थे, को पता चला कि उनकी जड़ें काटने में भी ब्रिटिश कम नहीं थे। नए और ज्यादा उग्र राजभक्त ऐजेंटों को कुलीन राज्यों की स्वतंत्राता और आर्थिक क्षमता को कमजोर करने के लिए नियुक्त किया गया।

उदाहरण के लिए, बड़ौदा राज्य के ब्रिटिश प्रशासक, सर टी. माधव राव, ने राज्य को हथियार निर्माण अथवा खरीदने के अधिकार से च्युत करने का कानून लागू किया। उसने नमक जैसी जनउपयोगी वस्तुओं पर निरंतर बढ़ने वाले करों को लागू किया और ब्रिटिश उद्यमियों को वितरण के एकाधिकार प्रदान किए। साथ ही साथ, माधव राव ने ब्रिटिश की सेवाओं, जिनकी राज्य को कोई जरूरत नहीं थी, के लिए बड़े बड़े भुगतानों के करार पर हस्ताक्षर किए। माधव राव के प्रशासन में भाईभतीजावाद और घूसखोरी खूब पनपी। राज्य के इन अहितकारी आर्थिक कानूनों या करारों का जिन्हांेने विरोध किया उन्हें राज्य से बाहर कर दिया गया। माधव राव जैसे राजभक्त इस प्रकार से राज्य की प्रजा की असहायता और भीषण दरिद्रता के कारण बने।

दूसरे राजभक्त इतने उधमी नहीं थे और ब्रिटिश से अपने सहयोग को सुधारक दृष्टिकोण बताने का यत्न करते थे। 1817 में जन्मे सर सईद अहमद जिनको लार्ड डफरिन के द्वारा पब्लिक सर्विस कमीशन का सदस्य नियुक्त किया गया था, ने भारत में ब्रिटिश की उपस्थिति को ’’देश के वैज्ञानिक आधुनिकीकरण के लिए लाभदाई’’ माना और इस उपमहाद्वीप में ब्रिटिश उपस्थिति को ’’उदारीकरण’’ का कारक माना।

/अनेकों ने इसी दृष्टिकोण को इस बात की संभावना को नकारते हुए प्रतिध्वनित किया कि ये प्रगतियां तो भारतवासी स्वयं अपनी मनपसंद राजनीतिक व्यवस्था में कर सकते थे। और, विशाल आर्थिक हानि को जो औपनिवेशिक शासन ने निचोड़ी थी, रोका जा सकता था। यह ध्यान देने योग्य है कि थाईलेंड, दक्षिण कोरिया और जापान जो एशिया में यूरोपियन उपनिवेशन से बच गये थे, भारत के मुकाबले आधुनिक शिक्षा पद्धति एवं आधुनिक तकनीक को ज्यादा तेज गति से अपना सके।/

’’1857 के भारतीय विद्रोह के कारणों’’ के बारे में लिखते हुए सईद अहमद ने कहा कि भारत की जनता ने ब्रिटिश इरादों को ’’गलत समझा’’ और ब्रिटिश शासकों के ’’अच्छे नुक्तों’’ को भी समझने में वे असफल रहे। जब इंडियन नेशनल कांग्रेस औपनिवेशिक प्रशासन में ही भारतीयों के लिए ज्यादा प्रतिनिधित्व और साम्राज्यशाही के अंदर ही स्वशासन के क्रमिक विकास के उद्देश्यों को लेकर प्रारंभ हुई, सईद अहमद ने स्वतंत्राता संग्राम का विरोध किया। और, 1887 में मुस्लिम शैक्षणिक सम्मेलन के अपने भाषण में मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल होने से रोका। यद्यपि उसने अपने आप को उदारवादी और धर्मनिरपेक्षवादी प्रगट करने की कोशिश की परंतु सभी भारतवासियों के लिए सामान्य एवं एक समान चुनाव का विरोध किया और मुसलमानों तथा अन्य अहिंदूओं के लिए अलहदे और उपखंडीय चुनाव की वकालत की। उसके भाषणों से से प्रगट नहीं होता कि वह विभाजनकारी भावनाओं और साम्प्रदायिक इरादों से प्रेरित था परंतु उसके प्रचार ने दो देश नीति के पैदा होकर बढ़ने तथा अंतिम तौर पर, भारतीय उपमहाद्वीप में खून रंजित विभाजन के बीज बोये। बहुत देर के बाद, उसने महसूस किया कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक भारतवासियों से समानता का व्यवहार नहीं करते। और तब, उसे कांग्रेस जैसे संगठन की कीमत समझ में आई। उसने भारत में ब्रिटिश की उपस्थिति के बारे में भारी शंका और पूर्वधारणाएं प्रगट करना शुरू किया। परंतु तब तक बहुत नुकसान हो चुका था। अपने सार्वजनिक जीवन में सईद अहमद ने, दूसरों की तरह ही, ब्रिटिश हितों की बहुत सेवा की।

सर अहमद के समान सर अली इमाम, पटना के एक कुलीन घराने में 1869 में जन्मे, सर मोहम्मद सफी, समूचे पंजाब में फैली जमींदारी के अत्यंत धनाढ्य घराने में 1869 में जन्मे और रहमत उल्ला सयानी 1847 में जन्मे, प्रमुख राजभक्त थे जिन्हांेने साम्राज्यशाही के बचाव में महत्वपूर्ण भूमिकायें अदा कीं थीं। ’’राज’’ के लिए महान सेवाओं के लिए लार्ड हर्डिंग द्वारा प्रशंसित अली इमाम, जो पटना हाई कोर्ट के जज भी बनाये गए थे, ने भारतीय जनता और औपनिवेशिक प्रशासन के बीच के मतभेदों को धंुधला करने की कोशिश की। उनने यह बताने की कोशिश की कि भारतीय राष्ट्र्प्रेम और ब्रिटिश संप्रभुता की राजभक्ति दोनों समपूरक हैं और ब्रिटिश साम्राज्य में गर्व की बात हैं।

मोहम्मद सफी ने तर्क करने की कोशिश की कि ब्रिटिश और भारतीय हित ’’समान’’ हैं। भारत में ब्रिटिश प्रशासन में सुधार के सफी समर्थक थे। उनने ’’ब्रिटिश के प्रति भारत की ईमानदारी’’ पर जोर दिया और साम्राज्य को ’’हमारी सामूहिक धरोहर’’ कहा था। ’’मैं अपने देशवासियों से यह मान लेने की गंभीर अपील करता हूं कि भारत में हमारे ब्रिटिश निवासी भी हमारे सदृश्य ही अपने भविष्य की सेहत की फ्रिक करते हैं जितने कि हम खुद। और, उन्हें अपनी संवैधानिक उन्नति में भूमिका अदा करने का अधिकार है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारत की पुनर्जागृति की सुनिश्चित सफलता संवैधानिक उन्नति के पथ के साथ उनके सहयोग और सद्इच्छा में सन्निहित है। हमें सभी अविश्वासों को त्याग देना चाहिए और पारस्परिक विश्वास की भावना से गुथना चाहिए, ब्रिटिशों का स्वागत इस देश में दो पग आगे बढ़कर करना चाहिए। संयुक्तता में शक्ति है और भारत-ब्रिटिश संयुक्तता में ऐसी कोई उंचाई नहीं है जहां भारत न पहंुच सके।’’ सिविल एंड मिलेटरी गजट, लखनउ पृष्ट 222, एमिनेंट मुसलमान से उद्धृत।

राजभक्ति के झुकाव की हद ही हो गई आगा खान, करांची में 1675 में जन्मे सर सुलतान मोहम्मद शाह में। उसने ब्रिटिश के यूरोप, दक्षिण अफ्रीका या अन्य कहीं के युद्ध संबंधी कार्यकलापों के प्रति राजभक्ति का प्रदर्शन यह कहते हुए किया ’’यदि वे मुझे अवसर दें तो मैं ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अपने खून की आखिरी बूंद भी बहा दूंगा।’’

सर सईद अहमद की प्रवृति में ही आगा खान ने मुस्लिम जातिवाद और अलगाववाद के विचार को आगे बढ़ाया। उसने आॅल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना कांग्रेस के मुकाबले और उसे हराने के लिए की। एक विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए वकालत की जो खासकर देश के मुसलमानों के लिए होगा। ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा इससे ज्यादा अच्छी और क्या हो सकती थी कि आगा खान ने इस तरह भारतीय हिंदू और मुसलमानों के बीच विभाजन को गहरा कर दिया। ब्रिटिश अखबारों और साम्राजी वर्गों में उसे इस काम के लिए बड़े बड़े पुरूष्कारों से सम्मानित किया गया।

इतने पर भी, सभी प्रमुख मुस्लिमों ने इस विभाजनकारी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। बद्दरूदीन तैयबजी, जन्म 1844, जो 1887 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे, ने 1879 में सूती वस्त्रों पर से आयात कर को हटाये जाने के विरोध करने पर भारतीय उद्योगपतियों का सहयोग पाया था। उनने भारत के मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा और मुस्लिम महिलाओं पर से पर्दा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि वे बंबई में 1880 में, अंजुमन ए इस्लाम के सचिव और बाद में अघ्यक्ष, बने थे। 1883 में, उनने ब्रिटिश संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में भारतीयों को समानतां के लिए भी अभियान चलाया था।

तैयबजी के उत्तराधिकारी सर फिरोजशाह मेहता, जन्म 1845, थे जो 1889 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने। तैयबजी की तरह फिरोजशाह मेहता भी औपनिवेशिक प्रशासन में भारतीयों के लिए समानता की लड़ाई लड़े। उनने भारतीय विश्वविद्यालय पद्धति में यूरोपियन प्रभुत्व का प्रतिरोध लार्ड कर्जन को हड़काते हुए किया था। लार्ड कर्जन को उसके भारतीय विश्वविद्यालय पद्धति में यूरोपियन प्रभुत्व को विस्तृत करने के प्रयासों के लिए औपनिवेशिकता के पक्षधर टाईम्स आॅफ इंडिया का संपादकीय समर्थन प्राप्त था। इस पर भी, फीरोजशाह मेहता ने विप्लववादी राष्ट्र्ीयता का विरोध बारंबार प्रगट किया और कांग्रेस को राजभक्ति के मार्ग पर बने रहने के लिए बड़ी मेहनत की। मोहम्मद सियानी, जो पूर्व में कांग्रेस से दूर ही रहे थे, का 1896 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना कांग्रेस पर राजभक्ति की पकड़ का ही अनुमोदन था।

सयानी ब्रिटिश का प्रबल प्रशंसक था और ब्रिटिश के अभिप्रायों का अविश्वास करने एवं उनकी उपस्थिति को नहीं चाहने वालों की आलोचना करते थे। भारत में ब्रिटिश की उपस्थिति का बचाव करते हुए भावपूर्ण भाषण में कहा कि ’’सूर्य के नीचे ब्रिटिश देश से अधिक स्थाई और ईमानदार कोई अन्य देश नहीं है।’’ ब्रिटिश नीतियों के फलस्वरूप जब भारत दुर्भिक्ष से ग्रासित था उसने ’’कानून और दया’’ पर आधारित और भारत में ’’शांति’’ देने वाला कहकर ब्रिटिश शासन का बचाव किया। सयानी ने भ्रम पाला कि अंग्रेजी धन भारत का आधुनिकीकरण एवं औद्योगीकरण करेगा और भारत को समृद्ध बनायेगा परंतु वास्तव में, भारत ने 20 वीं सदी के पूर्वाध में, भारतीय अर्थव्यवस्था में शून्य बढ़ोत्तरी पाई गई और इंग्लेंड से भारत आने वाला धन एक बूंद से ज्यादा नहीं था। उद्धण 1898-99 के फाइनेंसियल स्टेटमेंट के दौरान हुए भाषण से लिए हैं।

इस समय के दौरान कांग्रेस में राजभक्ति के मुख्य पिरोधा फिरोजशाह मेहता थे। मेहता ने गैरसमझौतावादी राष्ट्र्ीय धाराओं का अपमान किया और उनको अलग थलग करने वाले लांछनों के लगाने में अगुआई की। उनका उग्र भाषण युवा देशभक्त बाल गंगाधर तिलक के विरूद्ध था और उन्हें खतरनाक ’’अतिवादी’’ कहा था। तिलक के विरूद्ध अपने आक्रमणों में मेहता को टाईम्स आॅफ इंडिया का समर्थन प्राप्त था। टाईम्स आॅफ इंडिया ने तिलक में राजभक्ति के लिए गंभीर चुनौती देखी और कांग्रेस राजभक्ति के मार्ग पर बनी रहे इसके लिए प्रचार किया। 1910 में, कांग्रेस संगठन पर भाषण करते हुए मेहता ने कांग्रेस की ब्रिटिश के प्रति राजभक्ति की पुष्टि की थी। स्वाभाविक था ब्रिटिश मेहता की नीतियों के प्रशंसक थे और उन्हें ’’नाईटहुड’’ की उपाधि से नवाजा था। यद्यपि मेहता का तिलक और विपिनचंद्र पाल के प्रति भारी विरोध समूची कांग्रेस का विरोध नहीं था परंतु कांग्रेस आम तौर पर राजभक्ति से घनिष्ठ बनी रही और गोखले जैसे नरमपंथी ही प्रभावी आवाज उठाने में समर्थ थे।

गोखले ने 1895 और 1920 के बीच के कांग्रेस के नेतृत्व को आधारभूतता दी। औपनिवेशिक शासन द्वारा लाये गये देश के आर्थिक सर्वनाश को अच्छी तरह से जानते हुए भी वे ब्रिटिश और साम्राज्य के तहत ही ज्यादा राजनैतिक सुधारों और स्वशासन के लिए संघर्षों में अपनी कर्तव्यपरायणता को बारंबार दुहराते रहे।

1905 से 1908 के बीच इंडियन नेशनल कांग्रेस की आत्मा के लिए तिलक और अजितसिंह तथा चिदम्बरम पिल्ले जैसे दूसरे नेताओं ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध लड़ाई को तेज करते हुए, गंभीर लड़ाई जारी रखी।

भाग दोः ’’स्वराज’’ और ’’स्वदेशी’’ के संघर्ष में ’’नरमपंथी’’ के विरूद्ध ’’उग्रवादी’’।